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अंक विद्या-भाग ५

Updated: Aug 7

सद्गुरु कृपा रहस्यम् और अंक विद्या के नये प्रयोग


विगत कुछ समय में मुझे कुछ प्रश्नों से बार - बार दो-चार होना पड़ा है जो सदगुरुदेव का ही एक संकेत है कि इस विषय पर तर्कसंगत रुप से अपने विचार सबके समक्ष रखे जाने ही चाहिए -


कुछ प्रश्न हैं, यथा -

  1. मैं अमुक मंत्र की सिद्धि करना चाहता हूं, कैसे करुं?

  2. मैं बहुत परेशान चल रहा हूं, जो कार्य करना चाहता हूं उसमें सफलता ही नहीं मिलती । क्या करुं?

  3. मैं अपने जीवन में इस कार्य को करना चाहता हूं, ऐसी कौन सी साधना की जाए जिससे सफलता मिले ही ।


सवालों की लिस्ट तो इतनी बड़ी है कि एक पूरी पोस्ट ही लिखनी पड़ेगी उन पर । पर आशय आप समझ ही गये होंगे ।


एक बात आप जान लीजिए कि सदगुरुदेव तो देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं । पर हमारी झोली अगर फटी निकले तो उसमें वो क्या कर सकते हैं । वैसे अब इस बात का ज्ञान कैसे किया जाए कि सदगुरुदेव हमेशा देने के लिए कैसे तैयार रहते हैं? आखिर प्रमाण क्या है इस बात का?


मैं भी हमेशा यही कहता हूं कि बिना प्रमाण के कोई बात मानी भी नहीं जानी चाहिए । प्रमाण मिले तभी मानना चाहिए कि सदगुरुदेव तो हमेशा देने के लिए तैयार रहते हैं । अब चाहे आपकी झोली फटी हो या नहीं, उससे क्या फर्क पड़ता है । फर्क तो इस बात से पड़ता है कि सदगुरुदेव हमें कुछ देते भी हैं या नहीं । अब ये बात अलग है कि जो कुछ भी सदगुरुदेव हमें देते हैं हम उसे संभाल भी पाते हैं अथवा नहीं ।


इस बात को हममें से अधिकांशतः ने कभी न कभी कहा ही है कि - हमने तो पर्याप्त संख्या में मंत्र जप भी किया, साधनायें भी की हैं, अनुभूतियां भी हुयी हैं पर काम नहीं होते हैं । जो समस्या चली आ रही थी, वह आज भी चली आ रही है । तो, इसका मतलब तो यही हुआ न, कि जो गड़बड़ी है वह गुरुजी में हैं, हममें नहीं । क्योंकि, हमने तो साधना की थी, अब गुरुजी कुछ फल देते ही नहीं हैं तो हम क्या करें" । अगर कोई ज्यादा गुस्से वाला हुआ तो ये भी कह सकता है कि ये साधना - वाधना कुछ नहीं है, सब बकवास है, कुछ नहीं होता ये सब करने से ।


इस तरह की सोच रखने से होगा तो कुछ नहीं, बल्कि हमारे अंदर ही एक नकारात्मक प्रवृत्ति आने लग जाती है, जब ये प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ जाती है तो समाज में भी एक नकारात्मक संदेश ही जाता है कि ये सब पाखंड है । इससे कुछ होता जाता है नहीं, बस माला लेकर बैठे रहो ।


अब आप ये सोचो कि उस गुरु को कितनी पीड़ी होती होगी यह सब देखकर, जिसने अपने पूरे जीवन को इसमें खपा दिया, साधना रुपी हीरे - मोती मुफ्त में ही अपने शिष्यों के बीच ही बिखेर दिये, इतना महत्वपूर्ण ज्ञान ग्रंथों और रिकॉर्डिंग के माध्यम से सुरक्षित करके रख दिया कि जब मैं सशरीर न रहूं, तब भी मेरा दिया हुआ ज्ञान लाखों - करोड़ों शिष्यों के अंधकारमय जीवन में प्रकाश की किरणों के समान होगा ।


कहने को तो आप कुछ भी कहते रहें, गुरु के ज्ञान को आत्मसात करने के लिए कम से कम 2 गुण मनुष्य के अंदर होने चाहिए -

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