आवाहन भाग - 20
शरीर के मुख्य १० द्वार हैं जहां से वायु निकल जाती है। यूं तो सूक्ष्म रूप से हमारे शरीर के सभी रोम छिद्र में से वायु निकल सकती है, परन्तु मुख्य रूप से १० द्वारों के माध्यम से यह वायु शरीर से बाहर निकल जाती है। ये 10 द्वार हैं - २ कान, २ आंख, २ नथुने, मुख, गुदा, लिंग तथा नाभि।
योग मार्ग में तथा योग तंत्र में प्राणायाम को अत्यधिक महत्व दिया गया है। प्राणायाम का एक सामान्य अर्थ प्राणों को रोकना होता है अर्थात, प्राणों पर आधिपत्य स्थापित करना। और, योग तंत्र में वायु को भी प्राण कहा गया है। एक सामान्य योग सिद्धांत से सांसों की गति जितनी रोकी जा सकती है, उतनी ही आयु का विकास किया जा सकता है।
नाभि केंद्र स्थान है जहां पर नाड़ियों का गुच्छा होता है, वैसे यह स्थान मणिपुर चक्र का भी है। जठराग्नि भी यहीं पर स्थित है। पूरे शरीर में अग्नि इसी स्थान से उत्पन्न की जा सकती है।
अग्नि अर्थात ऊष्मा...
योग सिद्धांत में वीर्य अर्थात जीव तत्व को बचा कर उसे अपने घन स्वरूप से प्रवाहित तथा उसके बाद उसे वायु स्वरूप में परिवर्तित करने का विधान है। वायु को जब ऊष्मा मिलती है तो वह ऊपर उठता है। इसी प्रकार इस जीव द्रव्य को वायुवान बना कर उसे पूरे शरीर में प्रसारित किया जा सकता है। यह कार्य मणिपुर चक्र के माध्यम से संभव है।
नाद से संबंधित दूसरी प्रक्रिया के पहले चरण में गुंजरण की प्रक्रिया में शरीर के ७ द्वारों को बंद किया जाता है। इस प्रक्रिया पर पहले ही लेख प्रकाशित हो चुका है इसलिए बार - बार उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है।
अब आगे की प्रक्रिया में हमें बाकी बचे २ और द्वारों को बंद करना है, जो कि गुदा तथा लिंग हैं। इसके लिए साधक अपने दाहिने पैर की एडी पर गुदा द्वार को स्थिर करके बैठ जाए तथा बाएं पैर की एडी से अपने लिंग स्थान के द्वार को दबा दे। अब शरीर में जो भी ऊर्जा होगी वह नाभि द्वार से बाहर जाने की कोशिश करेगी लेकिन, अग्नि कुंड होने के कारण यह सहज संभव नहीं है। इस लिए वह वायु ऊर्जा मणिपुर चक्र के आस पास ही घूमती रहती है।
इस अवस्था में मणिपुर चक्र अत्यधिक तीव्रता से गतिशील हो जाता है। सदगुरुदेव ने एक बार बताया था कि अगर साधक यह प्रक्रिया बिना गुंजरण तोड़े २० मिनिट तक कर लेता है तो वह शून्य में आसन लगा सकता है। क्योंकि जो भी वायु होगी वह गुंजरण के माध्यम से मणिपुर चक्र पर केंद्रित होगी और, अग्नि कुंड के कारण उस वायु के कण धीरे धीरे फैलने लगते हैं। इस प्रकार से वह वायु शरीर से बाहर निकलने का प्रयत्न करेगी लेकिन जब, शरीर के द्वार बंद रहने की वजह से यह संभव नहीं होता तो, वह ऊपर दिशा में गति करने लगती है। इस लिए जब वह ऊपर उठेगी तब अपने साथ ही साथ पूरे शरीर को भी उठा लेती है।
यूं यह क्रिया पेचीदा है तथा साधक में धैर्य होना जरूरी है। पढ़ने में यह जितनी आसान लगती है, उससे कई - कई गुना यह श्रम साध्य है।
यहां हम नाद के संबंध में चर्चा कर रहे हैं। जब व्यक्ति इस प्रक्रिया को अपनाता है तब उसकी अन्तश्चेतना जागृत हो जाती है तथा गुंजरण प्रक्रिया की समाप्ति पर उसकी धारणा स्थिति बन जाती है। इस स्थिति में वह अपने शरीर की गहराई में उतर सकता है तथा अनहद नाद को सुनने में समर्थ हो जाता है।
(क्रमशः)
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