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मनोकामना पूर्ति साधना-1

Updated: Sep 1, 2023

पुष्पदंत प्रणीत भगवान शिव का अद्भुत मनोकामना पूर्ति साधना


मेरी ससुराल उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में है और मैंने कभी नहीं सोचा था कि यहां आकर उस साधना विधान की छवि देखने को मिलेगी जिसे स्वयं सदगुरुदेव ने दशकों पहले ही स्पष्ट कर दिया था । हालांकि मेरी ससुराल वालों का सदगुरुदेव से सीधा कोई नाता नहीं रहा है पर मैं ये देखकर बहुत आश्चर्यचकित हुआ था कि इतना दुर्लभ विधान क्रम इस क्षेत्र में वर्षों से प्रचलित है ।

हालांकि, सैकड़ों वर्ष के काल क्रम में इस विधान में पंडितों ने बहुत सारे बदलाव कर दिये हैं पर मूल तथ्य जो है वह है शिवलिंग के निर्माण की विधि, वह आज भी जस की तस है । उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है । यह सब मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक तथ्य रहा है ।

शिवलिंग निर्माण

आज जिस महत्वपूर्ण साधना क्रम पर चर्चा की जा रही है, वह है पुष्पदंत प्रणीत मनोकामना पूर्ति साधना विधान


इससे पहले आपने पुष्पदंत का नाम सदगुरुदेव की आवाज में उच्चरित प्रातः स्मरणीय वेद श्रुतियां (भाग 1) में सुना है जिसमें सदगुरुदेव ने भगवान शिव के गण, पुष्पदंत द्वारा रचित, शिव महिम्न स्तोत्र का उच्चारण किया है । यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्तोत्र है और इसको प्रतिदिन सुनने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती ही है ।

 

सदगुरुदेव ने अपने प्रवचन में इस साधना की स्थिति और महत्व स्पष्ट किया है ।


एक बार दक्ष ने मृत्युंजय यज्ञ, विश्व विजय की कामना से किया । उसमें सभी देवताओं का आवाहन किया गया । विष्णु, ब्रह्मा, इंद्र, यम, कुबेर सबका आवाहन किया गया था । मगर उस यज्ञ में शिव का न तो आवाहन किया गया और न ही शिव को यज्ञ में निमंत्रित किया गया । सती अपने पिता के इस कार्य को महसूस कर अत्यधिक दुखी हुयी और उसने शंकर से पूछा कि मेरे पिता का यह कार्य शोभनीय नहीं है । फिर भी अगर आप आज्ञा दें तो मैं यज्ञ में जाकर देखना चाहती हूं कि ऐसा क्यों हुआ ।


शिव ने कहा कि बिना आदर के कहीं पर भी जाना उचित नहीं है । अगर कहीं पर निमंत्रण मिले, उचित सम्मान मिले तो कहीं पर भी जा सकती हैं मगर बिना निमंत्रण किसी के भी यहां जाना अभीष्ट नहीं है । सती ने कहा, गुरु के घर और पिता के घर जाने के लिए किसी भी प्रकार के निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती है, यह शास्त्रीय वचन है । और वह मेरे पिता का घर है इसलिए मैं वहां जाने के लिए किसी भी प्रकार के निमंत्रण की इच्छा रखूं, यह उचित नहीं है । और, सती अपने पिता के घर पहुंची, उसने इतने विशाल यज्ञ को देखा और देखा कि उसके पिता दक्ष ने सभी देवताओं को आवाहन किया है, सभी देवता अपने - अपने स्थान पर स्थित हैं, केवल भगवान शंकर को छोड़कर । सती को बड़ा क्षोभ हुआ और उस क्षोभ अवस्था में वह यज्ञ कुंड में कूद गयी । जहां यज्ञ हो रहा था वहीं, अपने प्राणों को त्यागने के निमित्त कि, जहां मेरे पति का अपमान हो रहा हो वहां मेरा जीवित रहना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, ऐसा सोचकर सती उस यज्ञ कुंड में कूद गयी ।


जब भगवान शंकर को इस बात का पता चला तो वे अत्यंत क्रोधित अवस्था में वहां पहुंचे और अपने सभी गणों का आदेश दिया कि इस यज्ञ को विध्वंस कर दिया जाए । अंततः गणों ने, सारे यज्ञ को तोड़ - फोड़कर, यज्ञ वेदी को तोड़कर, सारे आसनों को उठाकर, यज्ञ समिधाओं को लेकर फेंक दिया और जलती हुयी सती को बाहर निकाल दिया । मगर इतने पर भी शंकर का क्रोध शांत नहीं हुआ और उन्होंने अपनी जटा खोलकर, विशेष मंत्र आवाहन से एक गण उत्पन्न किया जिसका नाम वीरभद्र रखा गया । वीरभद्र को आज्ञा दी गयी कि तुम्हें दक्ष का सिर काट देना है । वीरभद्र ने आगे बढ़कर उस महान तेजस्वी, उच्च कोटि के साधक दक्ष का सिर अलग कर दिया । इससे बड़ा हो हल्ला मचा । सती ने आकाश से कहा कि यह जो सब कुछ यज्ञ को विध्वंस किया, यह उचित किया मगर मेरे पिता का वध करना किसी दृष्टि से उचित नहीं था । तब भगवान शंकर ने एक बकरे का सिर लेकर, दक्ष के धड़ से लगा दिया और तबसे दक्ष का नाम अजा भी पड़ा । अज माने बकरा ।


जिस प्रकार से गणेश का शरीर मनुष्य का है और, सिर हाथी का है, उसी प्रकार दक्ष का सिर बकरे का है ।

और, शंकर ने उसी क्रोधित अवस्था में सती की लाश को अपने कंधे पर डालकर चारों तरफ घूमने लगे । क्योंकि उनका क्रोध अपने आप में नियंत्रित नहीं हो रहा था । और, जहां - जहां वो बढ़ते गये और जिस - जिस स्थानों पर सती के अंग गिरते गये, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाये । कामाख्या का शक्तिपीठ भी इसी प्रकार के पीठ में से एक पीठ है ।


जिस प्रकार से द्वादश ज्योतिर्लिंग भगवान शंकर के जो शिवभक्त होते हैं वे, भारतवर्ष को द्वादश ज्योतिर्लिंगों के अवश्य ही दर्शन करते हैं । और वे पूरे भारतवर्ष में फैले हुये द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं । उसी प्रकार से 52 शक्तिपीठ हैं और, जो शक्ति के उपासक है, शक्ति के आराधक हैं, वे अपने जीवन में इन 52 शक्ति पीठों के दर्शन अवश्य करता है ।


जहां सती का हाथ गिरा, जहां सती का नेत्र गिरा, जहां सती की नासिका गिरी, जहां उसका सिर गिरा, पैर गिरे, इस प्रकार से शरीर के 52 हिस्से टूट -टूट कर गिरते गये । जहां - जहां जो भी अंग गिरा वह स्थान शक्ति पीठ बनता गया । शक्ति पीठ साधना की दृष्टि से उत्तम कोटि का स्थान बनता है ।


इतनी क्रोधित अवस्था में जब शंकर, सती के धड़ को लिये हुये कामाख्या पहुंचे तो वहां सती का सिर गिर गया । शंकर ने कहा कि यह श्रेष्ठतम शक्तिपीठ होगा । मगर ज्यों - ज्यों उसके अंग गिरते गये, त्यों - त्यों शिव का रौद्र रुप अत्यधिक उग्र होता गया । इतना अधिक की उनके क्रोध की ज्वाला से पूरा ब्रह्मांड़ थरथराने लगा । उन लपटों से देवता तक अपने आप में भयभीत महसूस करने लगे । और किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि भगवान शंकर के सामने जाकर उनका क्रोध शांत करे । ऐसे समय में पुष्पदंत उनके सामने खड़ा था । उन्होंने निश्चय कर लिया था कि या तो ये शरीर भगवान शिव के क्रोध की अग्नि में समाप्त हो जाएगा या फिर मेरे आराध्य का क्रोध शांत होगा । उस साधना को पुष्पदंत प्रणीत भक्ति साधना कहा गया है ।

इस भक्ति साधना के कुछ हेतु हैं जिनमें मुख्य हैं -

  1. साधक स्वयं शिव सायुज्य हो सकता है अर्थात शिवमय हो जाता है ।

  2. इस साधना के द्वारा साधक आवागमन के मार्ग से मुक्त हो जाता है और, इसके बाद जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती

  3. इस साधना के द्वारा साधक हजारों - हजारों वर्षों तक कैलाश में भगवान शंकर के सामने अपनी आंखों से भगवान शंकर की लीलाओं का दर्शन कर सकता है ।

इसीलिए पुष्पदंत प्रणीत यह साधना अत्यधिक महत्वपूर्ण कही गयी है ।


शिव पुराण में इस साधना के बारे में, एक सामान्य संकेत है कि पुष्पदंत ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए एक विशेष साधना कामाख्या में प्रस्तुत की, जिसे भक्ति साधना कही गयी है । जो व्यक्ति इस साधना को करता है उसे उपरोक्त वर्णित फल प्राप्त होते हैं । इतना तो उल्लेख है लेकिन क्या साधना की गयी है, इसका उल्लेख शिव पुराण में नहीं है ।


पुष्पदंत प्रणीत भक्ति साधना के नाम से एक पुस्तक प्रकाशित हुयी थी चौखंबा प्रकाशन से, वाराणसी से । कोई मधुसूदन झा उसके संपादक रहे हैं । मगर वह सर्वथा असत्य और भ्रामक पुस्तक है जिसमें कोई दूसरी ही साधना का समावेश करके इसको लिख दिया गया है । वह साधना ही नहीं है जो पुष्पदंत प्रणीत साधना है । फिर भी इस पुस्तक को हजारों लोगों ने खरीदा भी और किया भी होगा । फिर एक शिमला से श्रीकृष्ण दास ने 1937 में एक पुस्तिका प्रकाशित की, शिव भक्ति साधना, पुष्पदंत प्रणीत । यह कोई योगी राधिकाचार्य नाम के योगी थे उन्होंने उसका संपादन किया था । मगर वह साधना पुस्तिका भी अपने आप में सही नहीं थी । प्रारंभ के 2 - 3 श्लोक तो सही दिये गये हैं मगर आगे उन्होने बिलकुल कपोल कल्पित साधना का समावेश कर दिया है । ऐसा लगता है कि साधना पुस्तक का कोई पृष्ठ उनके हाथ लग गया होगा और बाकी के के पृष्ठ नहीं मिलने से उसको जोड़करके इस पुस्तिका का प्रकाशन कर दिया ।


इसके अलावा भी पुष्पदंत प्रणीत साधना के बारे में अलग - अलग स्थानों से 30 - 40 ग्रंथ प्रकाशित हुये हैं । आगरा से भी पुस्तके प्रकाशित हुयी हैं, लखनऊ से भी प्रकाशित हुयी हैं । बनारस भी 7-8 पुस्तकें प्रकाशित हुयी हैं, पटना से प्रकाशित हुयी हैं, मुंबई से भी प्रकाशित हुयी हैं मगर, उस पुस्तकों में जो भक्ति साधना दी हुयी है वह प्रामाणिक नहीं हैं ।


प्रामाणिक क्यों नहीं हैं? क्योंकि पुष्पदंत प्रणीत भक्ति साधना की मूल प्रति केवल 3 स्थानों पर है । पहली प्रति नेपाल में महाराजा बीरेन्द्र के पुस्तकालय में ताड़ पत्रों पर सुरक्षित है । जो कोई भी काठमांडू जा सके, उस प्रति को देख सकता है और पढ़ सकता है, उसमें किसी प्रकार का कोई मना नहीं है । कांच के गिलास में ताड़ पत्र पर अंकित मूल प्रति आसानी से देखी जा सकती है ।


इससे भी महत्वपूर्ण बात, नेपाल में काठमांड़ू में महादेव का मंदिर है, पशुपतिनाथ । और, संसार का एकमात्र हिंदू राज्य है नेपाल, जिसका राज्य धर्म हिंदू है । भारतवर्ष तो धर्मनिरपेक्ष राज्य है जिसका कोई धर्म नहीं है । कहीं इस्लाम धर्म है, कहीं और कोई धर्म है । केवल हिंदू धर्म जिस देश का है वह, नेपाल है ।

इस पशुपतिनाथ के मंदिर में, मुख्य मंदिर के सामने एक पीतल का बहुत बड़ा नंदी है, यह पीतल का नंदी करीब 24 फीट ऊंचा है । लोग दूर से इन नंदी को देखते तो हैं और इस नंदी पर बंदर बैठे रहते हैं क्योंकि पशुपतिनाथ मंदिर में 3 चीजों की बहुलायत है - आदमी 100 हैं तो बंदर 600 हैं, आदमी 100 हैं तो 800 सांड़ घूमते रहते हैं पूरे मंदिर में और, जगह - जगह गोबर करते रहते हैं । और 1 आदमी के पीछे 1 लाख मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं ।

इतना भव्य, अद्भुत, महत्वपूर्ण मंदिर की दुर्दशा इस प्रकार की है कि उसे देखकर बड़ा दुःख और क्षोभ होता है । इस बात की चर्चा महाराज तक भी पहुंची थी । पर शायद जो भी पैसा मंदिर के लिए जाता होगा, वह भगवान और पुजारियों के भोग में ही खर्च हो जाता होगा । मंदिर की सफाई के लिए शायद कुछ बचता ही नहीं होगा ।


मगर यह पुष्पदंत प्रणीत भक्ति साधना पूरी नंदी की गर्दन पर लिखी हुयी है, यह महत्वपूर्ण है । किसी ने वहां जाकर वहां पूरा खुदा हुआ अंकित किया हुआ है । करीब 9 - 11 फीट की गर्दन है, पीतल की गोल्ड पॉलिश्ड, क्योंकि इतना बड़ा नंदी है, उस नंदी की गर्दन पर पुष्पदंत प्रणीत भक्ति साधना अंकित है । इसको उतारकर ला सकते हैं, देख सकते हैं । यह दूसरी प्रति है ।


तीसरी प्रति कलकत्ता में बगला पुस्तकालय में संग्रहित है ।


ये तीन प्रतियां मौलिक और प्रामाणिक हैं । अन्य सारी प्रतियां तो कपोल कल्पित हैं और मनगढ़ंत हैं ।


अब प्रश्न यह उठता है कि जब ये 3 प्रतियां इतनी सहजता से उपलब्ध है तो फिर ऐसी नकली प्रतियां क्यों सामने आयीं? इसलिए नकली प्रतियां सामने आयी होंगी कि इतनी मेहनत कौन करे, एक बात और, दूसरी बात पुष्पदंत प्रणीत जो साधना है, वह सारी सांकेतिक साधना है, संकेत में समझायी हुयी है । जिसका अर्थ करना अपने आप में कठिन है । संस्कृत का बहुत बड़ा विद्वान शब्दार्थ तो कर लेगा किंतु, भावार्थ करना कोई आवश्यक नहीं कि, भावार्थ कर ही ले ।


यदि ये कहा जाए कि कैलाश गमन, शब्दार्थ करते समय कहा जाए कि कैलाश में जाना चाहिए मगर कैलाश गमन का अर्थ केवल कैलाश पहाड़ है या कैलाश का अर्थ कुछ और है । जब तक उस अर्थ को नहीं समझेंगे तब तक उस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पायेंगे ।


उदाहरण के लिए अगर किसी मूर्ख को गधा कहा जाए तो इसका शब्दार्थ तो यही बनेगा कि वह 4 पैरों वाला गधा है । मगर इसका भावार्थ यह नहीं है । भावार्थ है कि वह मूर्ख है ।


इसी प्रकार से जब तक हम उसके भाव का अर्थ नहीं समझेंगे तब तक साधना के मूल महत्व को भी नहीं समझेंगे ।

सारा श्लोक व्यंजना के माध्यम से स्पष्ट किया गया है, अभिधा के माध्यम से नहीं । क्योंकि शब्द की 3 वृत्तियां हैं, अभिधा, लक्षणा और व्यंजना । जो कहा जाए उसको उसी रुप में समझा जाए, उसे अभिधा कहते हैं । मैं घर जा रहा हूं, इसका शब्दार्थ नहीं हो सकता । ऊंचे से ऊंचा हिंदी का विद्वान भी इसका शब्दार्थ नहीं कर सकता । दरअसल, यह स्वयं अपने आप में शब्दार्थ है । यह अभिधा है । और उसके लिए उसे उसी अर्थ में समझेंगे ।

दूसरा लक्षणा है । मैं कहूं कुछ और, और, उसका अर्थ कुछ और निकले । जैसे मैं कहूं कि यह गधा है । इसका अर्थ है केवल मूर्ख ।


और तीसरा व्यंजना के माध्यम से, मैं जिसको कहूं, उसके लिए न होकर किसी तीसरे के लिए हो । जैसे मैं अपनी मां के सामने, अपने पिताजी के सामने अपनी पत्नि से बातचीत नहीं कर सकता । आजकल तो कर सकते हैं मगर ये पुराने समय की बात है । आज से करीब 40 साल पहले मां-बाप खड़े हों तो न तो पत्नि की तरफ ताक सकते हैं और, न बातचीत कर सकते हैं । उस समय अगर मैं ऑफिस जा रहा हूं और मैं 2 साल की बेटी से कहूं कि कपड़े धोकर रखना, मैं शाम को कहीं जाउंगा तो कहा तो बेटी को संबोधित करके मगर, समझेगी पत्नि । यह व्यंजना है ।

शब्द 3 तरीके से व्यक्त किया जा सकता है ।


ये सारे श्लोक लक्षणा और व्यंजना के माध्यम से व्यक्त किये गये हैं । इसलिए इस भक्ति साधना को सही प्रकार से समझा नहीं गया है । इस वजह से इस प्रकार के कपोल कल्पित ग्रंथ प्रकाश में आ गये होंगे । ऐसा अनुमान है ।

इस प्रकार, सदगुरुदेव ने इस साधना की पृष्ठभूमि को समझाया है, और बताया है कि इसका महत्व क्या है, इसकी उपयोगिता क्या है, किन कार्यों से इस साधना को संपन्न किया जा सकता है । प्रचलित पुस्तकों में जो साधना पद्धति लिखी हुयी है, वह प्रामाणिक साधनायें नहीं हैं । इसकी मूल प्रतियां कहां - कहां पर हैं और आप कहां जाकर देख सकते हैं ।


क्रमशः...

 

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