आसन सिद्धि विधान-1
- Rajeev Sharma
- Dec 19, 2019
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Updated: Aug 7
बीजोक्त तन्त्रम् – विरूपाक्ष कल्प तंत्र उद्धृत त्रयी कल्प
प्रद्युत्मान तन्नोपरि उद्धरित: नूतन सृजः उत्तपत्ति सहदिष्ठ: ब्रह्मांडो सहपरि सहबीज: अक्षतान् । मुमुक्षताम स्थिरताम वै: दिव्यः वपुः मेधा: पूर्णम पूर्णै सपरिपूर्ण: आसन: दिव्यताम सिद्धि: ।।
“विरूपाक्ष कल्प तंत्र” से उद्धृत त्रयी कल्प का प्रथम महत्वपूर्ण अंग है आसन सिद्धि । आसन शब्द का प्रयोग विविध अर्थों में किया जाता है, जैसे...बैठने की पद्धति, भूमि, तथा वह स्थान या माध्यम जिसके ऊपर बैठकर आध्यात्मिक या भौतिक कार्य संपन्न किये जाते हैं ।
सिद्ध विरूपाक्ष ने इस शब्द को नवीन अर्थ प्रदान किया है...उन्होंने बताया कि साधक को किस माध्यम का किस तरह प्रयोग करना चाहिए..इसका ज्ञान अनिवार्य है, इस पद्धति का पूर्ण ज्ञान ना होने पर वह माध्यम मात्र माध्यम ही रह जाता है, अब उसके प्रयोग से साधक को उसके साधना कार्य में अनुकूलता मिलेगी ही, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है ।
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पूर्णम पूर्णै सपरिपूर्ण: आसन: दिव्यताम सिद्धि:” अर्थात आसन मात्र आसन न हो अपितु उसमें पूर्ण दिव्यता का संचार हो और वो दिव्यता से युक्त हो तभी उसके प्रयोग से साधक की देह दिव्य भाव युक्त होती है और तब यदि उसका भाव या साधना पक्ष उसे पूर्णत्व के मार्ग पर सहजता से गतिशील करा देता है और, साधक को पूर्णता प्राप्त होती ही है | यहां पूर्णम् का अर्थ भी यही है कि माध्यम पूर्णत्व गुण युक्त हो तभी तो पूर्णत्व प्राप्त होगा ।
तंत्र शास्त्र कहता है कि दिव्यता ही दिव्यता को आकर्षित कर सकती है | यदि साधक दिव्य तत्वों के सामीप्य का लाभ लेता है या संपर्क में रहता है तो उसकी देह में स्वतः दिव्यता आने लगती है, तब ऐसे में वातावरण में उपस्थित वे सभी नकारात्मक अपदेव शक्ति, अदृश्य यक्ष, प्रेत आदि आपके मंत्र जप को आकर्षित नहीं कर पाते हैं और आपकी क्रिया का पूर्ण फल आपको प्राप्त होता ही है । हममें से बहुतेरे साधक ये नहीं जानते हैं कि जब भी वे किसी महत्वपूर्ण दिवस पर साधना का संकल्प लेते हैं और, जैसे-जैसे साधना का समय समीप आता है, उनके मन में साधना और इष्ट के प्रति नकारात्मक विचार उत्पन्न होते जाते हैं । या यदि कड़ा मन करके वे साधना संपन्न करने हेतु बैठ भी गए तो कुछ समय बाद उन्हें ये लगने लगता है कि बाहर मेरे मित्र अपने मनोरंजन में व्यस्त हैं और मैं मूर्ख यहां बैठा बैठा पता नहीं क्या कर रहा हूं ?
क्या होगा ये सब करके ?
आज तक तो कुछ हुआ नहीं, अब क्या नया हो जाएगा ?
हमें ये ज्ञात नहीं है कि आसन यदि पूर्ण प्रतिष्ठा से युक्त ना हो तो हम चाहे कितने भी गुदगुदे आसन पर या गद्दे पर बैठ जाएं, हम हिलते-डुलते रहेंगे और हमारे चित्त में बेचैनी की तीव्रता बनी रहेगी । और इसका कारण हमारे शरीर का मजबूत होना नहीं है अपितु भूमि के भीतर रहने वाली नकारात्मक शक्तियां सुरक्षा आवरण विहीन हमारी इस भौतिक देह से सरलता से संपर्क कर लेती हैं । और, तब उनके दुष्प्रभाव से हमारा चित्त भी बैचेन हो जाता है और शरीर भी टूटने लगता है और वे सतत हमें साधना से विमुख होने के भाव से प्रभावित करते रहते हैं । और जब ऐसी स्थिति होगी, आप व्याकुल मन और अस्थिर शरीर से कैसे साधना करोगे और कैसे आपको सफलता मिलेगी । और यदि आप आसन से अलग हो जाते हो तो पुनःना सिर्फ आपका शरीर स्वस्थ हो जाता है बल्कि आपका चित्त भी प्रसन्न हो जाता है ।

