विधि का विधान
इस संसार में ऐसा कौन होगा जिसके जीवन में मानसिक चिंतायें न सताती हों या दुविधायें न आती हों । मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है तो सभी तरह की समस्याओं से सामना तो होगा ही । ये तो प्रकृति का नियम है । कालक्रम में जीवन कभी बहुत सुख पूर्ण होता है और कभी समस्यायें इस प्रकार से घेर लेती हैं कि मानो जाने का नाम ही न लें ।
समस्या इस बात में नहीं है कि समस्या आयी है । मूल समस्या तो इस बात में है कि हम जान ही नहीं पाते हैं कि इस समस्या का समाधान करें तो करें कैसे । अगर हम समाधान जानते हैं तो आधी समस्या तो वैसे ही खत्म हो जाती है । बाकी की आधी समस्या तो आपके प्रयास करने से कम हो ही जाएगी ।
यहां हम भौतिक समाधान की चर्चा नहीं करेंगे । ऐसा इसलिए कि अपनी समस्या के समाधान के लिए प्रयास तो प्रत्येक व्यक्ति करता ही है । अगर डॉक्टरी समाधान चाहिए होता है तो अच्छे से अच्छे डॉक्टर को व्यक्ति दिखाता ही है । अगर बात शारिरिक परिश्रम की हो तो कोई भी पीछे नहीं हटता है । पैसे भी खर्च करने पड़ जाएं तो समस्या आने पर व्यक्ति उधार लेकर भी खर्च करता है ताकि समस्या से निदान मिल सके ।
पर क्या हो कि जब सारे प्रयास व्यर्थ चले जाते हैं और समस्या तनाव का रुप रख लेती है । ऐसे में कोई रास्ता भी समझ नहीं आता है । इससे पहले कि हम आध्यात्मिक प्रयासों की बात करें, जीवन के विभिन्न व्यावहारिक पक्षों को भी समझने का प्रयास करते हैं ।
इतिहास में असंख्य उदाहरण हैं जो इस बात पर भली – भांति प्रकाश ड़ालते हैं कि विधि के विधान को कोई नहीं टाल सका है । पर फिर भी लोग इनसे सीख नहीं पाते हैं । कारण तो परमात्मा ही जाने पर हम लोग इसको समझने का प्रयास तो कर ही सकते हैं ।
मैं आज यहां इतिहास के महानतम दानवीर और परमवीर योद्धा कर्ण के जीवन की कुछ घटनाओं पर चर्चा कर रहा हूं । कारण कि हमारा भी जीवन उस परवीर योद्धा से कम संघर्षशील नहीं होता है । वैसे उस जमाने में कर्ण ने जो कुछ सहा, उसकी तुलना आज भी किसी चीज से नहीं की जा सकती ।
हम सूर्य की पूजा करते हैं ताकि हमारे जीवन में भी यश और सम्मान प्राप्त हो सके । हम भी सूर्य की भांति चमक सकें इसीलिए तो सदगुरुदेव ने भगवान सूर्य के एक से बढ़कर एक मंत्र हम शिष्यों को प्रदान किये हैं । पर कर्ण तो स्वयं भगवान सूर्य के ही पुत्र थे, तब उनको वह सब मान – सम्मान और यश क्यों नहीं प्राप्त हुआ जिसकी उनको इच्छा थी । यह सवाल आना तो स्वाभाविक ही है । आप कह सकते हैं कि जब साक्षात भगवान सूर्य के पुत्र को यश और सम्मान प्राप्त न हो सका, तो हम लोग किस श्रेणी में हैं । तो, अगर सवाल है तो उस पर चर्चा भी होनी ही चाहिए ।
लगभग 5000 साल पहले की इन घटनाओं के बारे में जो कुछ भी हमने जाना है वह उपलब्ध साहित्यों और कथाओं से ही जाना है । तो कितना महत्वपूर्ण समय रहा होगा कि उस काल की घटनायें आज भी लोगों की जुबान पर आ ही जाती हैं । कितना महत्व रहा होगा इन घटनाओं का, ये चिंतन योग्य तो है ही ।
कर्ण के प्रारब्ध की पहली महत्वपूर्ण घटना तब हुयी जब उनका जन्म हुआ और, दूसरी घटना तब हुयी जब भगवान परशुराम के आश्रम में बिच्छू का डंक सहने के बाद भी गुरु के श्राप के भागी बने । इन दोनों घटनाओं के बारे में आप सब जानते हैं इसलिए ये क्यों हुयी इस पर चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है ।
ये विधि का विधान था । होना ही था इसलिए हुआ । इस प्रकार की घटनाओं को Absolute Point कहा जाता है । इनको आप बदल नहीं सकते । जब इनको नहीं बदल सकते तो इनसे जुड़ी घटनायें भी नहीं बदली जा सकतीं । भविष्य में वह होंगी ही होंगी ।
अब आप सोच रहे होंगे कि जब कोई घटना बदली ही नहीं जा सकती तो उस पर चर्चा करने का लाभ क्या !
अगर चर्चा से लाभ नहीं होता तो मैं यहां पर कभी न लिखता । ऐसा इसलिए क्योंकि मेरे जीवन में तो जो कुछ भी लेखन है, सब सदगुरुदेव की प्रेरणा से ही है । तो जब मानस में यह चिंतन आया तो इस पर लिखने बैठ गया ।
कर्ण अपने जीवन की उन घटनाओं को नहीं बदल सकते थे जो हो चुकी थीं और न ही श्राप के कारण होने वाली घटना को । लेकिन उनके सामने एक मौका आया था जो वो समझ नहीं सके और उस पर चर्चा भी शायद ही कभी होती हो ।
आज हम सब जानते हैं कि महाभारत काल में जितने भी महावीर योद्धा हुए, उनके जीवन का केवल एक ही उद्देश्य था, “महाभारत के युद्ध में भाग लेना” । भले ही वह पाण्डव हों, कौरव हों, कर्ण हों, कृष्ण हों, भीष्म हों, घटोत्कच हों या फिर बाकी के महान योद्धा । उनका तो जन्म ही इस युद्ध में भाग लेने के लिए हुआ था । फिर चाहे उनको यह बात ज्ञात रही हो या न रही हो । उनको तो भाग लेना ही था । पूरे महाभारत के समय घटोत्कच गायब रहे, उनको भले ही एक रात्रि पहले बुलाया गया था तो उनको आना पड़ा । आना भी पड़ा और उस युद्ध में अपने उद्देश्य की पूर्ति भी करनी पड़ी ।
तो क्या यह बात कर्ण पर लागू नहीं होगी?
अवश्य होगी ।
पर ये लड़ाई कर्ण की कभी थी ही नहीं ।
जिस प्रकार से ये लड़ाई घटोत्कच की कभी नहीं थी, उसी प्रकार से ये लड़ाई कर्ण की भी कभी नहीं थी । बहुत संभव था कि घटोत्कच की तरह ही कर्ण को भी महाभारत के युद्ध में आमंत्रित किया जाता और उनको अपने उद्देश्य की पूर्ति करनी पड़ती लेकिन कर्ण ने तो ये युद्ध भी लड़ा (वो भी शुरु होने से पहले से ही) और लड़ा भी तो दुर्योधन की तरफ से । दुर्योधन अधर्म का प्रतीक था और इस बात को कर्ण अगर उसी दिन समझ जाते जब दुर्योधन ने उनको अंग देश का राजा बना दिया था तो संभव था कि जिस मान – सम्मान और स्वीकारोक्ति की चाहत उन्होंने की थी, वह उनको जीवन के आखिर में ही सही, पर मिलती जरुर ।
पर इतना धैर्य कौन धारण करना चाहता है?
याद कीजिए कि कर्ण को अंग देश का राजा कब बनाया गया था? जब राजसभा में अर्जुन ने अपनी धनुर्विद्या से सबका मन जीत लिया था, उस समय कर्ण ने भी कहा था कि उसे एक मौका दिया जाए तो वह इससे भी बेहतर करके दिखा सकता है । लेकिन गुरु कृपाचार्य ने उससे अपने राजकुल का परिचय देने के लिए कहा, “कुल का परिचय आए बिना राजकुमार द्वंद युद्ध नहीं करते, अर्जुन परिचय पाकर द्वंद युद्ध के लिए तैयार है” ।
अब कर्ण के लिए तो कोई राजपरिवार था ही नहीं । उनको तो अपनी धनुर्विद्या पर गर्व था । वो श्रेष्ठ थे तो उसका प्रदर्शन करने की चाह में ही राजसभा में आ गये थे । और, उस काल में एक राजकुमार ही दूसरे राजकुमार को चुनौती दे सकता था । कर्ण विवश हो रहे थे । इधर, दुर्योधन तो अर्जुन की धनुर्विद्या से ईर्ष्या ही करता था तो उसे ये एक मौका लगा और उसने कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया । उसने बिना कुछ खोए ही कर्ण की मित्रता भी प्राप्त कर ली और जीवनभर के लिए उसे अपना अहसानमंद भी बना लिया ।
और, यही वह पल था जब कर्ण विधि के विधान को पलट सकते थे ।
अगर कर्ण एक क्षण के लिए भी यह विचार करते कि बिना कीमत चुकाये अगर कोई चीज प्राप्त हो रही है तो क्या भविष्य में भी उसकी कीमत न चुकानी पड़ेगी तो संभव था कि वह अंग देश का राजा बनाये जाने से इंकार कर देते । वह यह भी तो कह सकते थे कि मैं जो भी कुछ हासिल करुंगा वह अपने बाहुबल से प्राप्त करने में समर्थ हूं ।
कर्ण ने अपने बाहुबल से ऐसा किया भी था । अपनी विद्या के बल पर ही उन्होंने अंग देश को एक गरीब देश से अत्यंत समृद्ध देश में बदल दिया था । इतिहास में इसका उल्लेख है कि कर्ण ने कुबेर की मदद से ऐसा किया था । तो ऐसा तो था ही नहीं कि कर्ण को स्वयं की क्षमता के बारे में पता ही नहीं था ।
लेकिन कर्ण ने पहला रास्ता चुना । कर्ण सूर्य पुत्र थे, इस बात का उनको उस समय ज्ञान नहीं था लेकिन वह स्वयं में विशिष्ट थे, इस बात का तो उनको भली भांति अहसास था । बाकी की घटनायें तो आप सब जानते ही हैं इसलिए हम सिर्फ उस क्षण विशिष्ट की चर्चा करेंगे जहां पर बदलाव संभव था ।
कर्ण न सिर्फ विशिष्ट थे बल्कि अद्वितीय भी थे । लेकिन उनके मन की मात्र एक इच्छा कि – इस विशिष्टता को समाज में स्वीकृति मिले, उनको भी वह सम्मान मिले जिसके वह हकदार हैं – मात्र इस एक इच्छा ने उनके विवेक पर वह पर्दा ड़ाल दिया जहां पर वह उस क्षण को पहचान ही नहीं सके जब दुर्योधन ने उनको अंग देश का राजा बना दिया । और, इस इच्छा को पोषित किया उनके अहं ने जिसने उनके मन में एक प्रबल धनुर्धारी होने का चोला ओढ़ रखा था ।
और जहां पर अहं होता है वहां इच्छायें (मात्र) नहीं रह जाती हैं । वहां इच्छायें आसक्ति का रुप धर लेती हैं और, आसक्ति किसी परिचय का मोहताज नहीं है – वह तो पूरा होने के लिए व्यक्ति से कुछ भी कार्य करा सकती हैं ।
इतिहास गवाह है कि कर्ण ने भी अपनी इन आसक्तियों को पूर्ण करने के लिए सब कुछ किया और, उसने जो कुछ किया, वही गुरु परशुराम का श्राप फलित करने का कारण भी बने ।
यही विधि का विधान है । इसको बदला नहीं जा सकता ।
आप कह सकते हैं कि अगर विधि का विधान बदलना संभव नहीं है तो भी क्या कर्ण के जीवन में भी कुछ बदला जा सकता था?
अगर आप मेरी राय पूछेंगे तो मैं स्पष्ट कह सकता हूं कि कर्ण के जीवन में बदलाव संभव था और, बहुत कुछ बदला जा सकता था लेकिन उसके लिए कीमत अदा करनी पड़ती है । ये कर्म जगत है, बिना कीमत अदा किये तो आपको कोई एक किलो चीनी नहीं देगा, प्रारब्ध को बदलना तो बहुत बड़ी चीज है ।
तो कीमत क्या होती?
कीमत बहुत महंगी है । कोई देना ही नहीं चाहता है पर चूंकि चर्चा चली है तो यहां पर स्पष्ट तो करना ही है । कीमत है हमारा अहं जो हमारे अंदर आत्म सम्मान का चोला ओढ़े बैठा रहता है । और, कीमत है हमारी आसक्तियां जो इच्छाओं का रुप ओढ़कर हमारे मन में बैठी रहती हैं । बाकी सब तो इन अहं और आसक्तियों के भाई – बहन हैं फिर चाहे वह क्रोध हो या निराशा, दुःख हो या अपना अभीष्ट पाने के लिए कुछ भी बलिदान करने को तैयार हमारा मन ।
ये अहं और आसक्ति मिलकर किसी भी व्यक्ति को माया में इतना उलझा सकते हैं कि व्यक्ति जन्म – जन्मांतर तक इनके चक्र से बाहर निकल ही नहीं पाता । कारण सीधा सा है – एक बार कर्म की श्रंखला शुरु हो जाए तो उससे बाहर निकल पाना लगभग नामुमकिन है ।
कर्ण ने उस क्षण में केवल एक निर्णय लिया था – अंग देश का राजा बनने का । उसके बाद के किसी भी क्षण में फिर उनका निर्णय लेने का अधिकार समाप्त हो गया । उसके बाद तो वह केवल उस माया में बहते रहे जो उनके सामने स्पष्ट थी ।
तो, अगर हम परमात्मा से कुछ चाहते हैं तो पहले हमें इन दोनों का त्याग करना होगा । यही कीमत है । बिना इसको चुकाये आप विधि का विधान नहीं बदल सकते ।
अगर कर्ण इन दोनों का त्याग कर पाते तो आज शायद हम उनको किसी और रुप में जान पाते । पर ऐसा नहीं हुआ और इतिहास कर्ण को इतना महान होते हुये भी वह महानता नहीं दे सका, जिसके वह अधिकारी थे ।
प्रश्नः अगर हम अपने अहं और आसक्तियों का त्याग कर दें तो क्या हमारी हर इच्छा पूरी हो सकती है?
उत्तरः अगर आपने अपने अहं और आसक्तियों का त्याग कर दिया तो आपके अपने प्रयास ही आपकी इच्छाओं को पूरा कर पाने में समर्थ हैं । बस शर्त यही है कि यहां पर इनका त्याग ईमानदारी से किया जाए । इसके साथ अगर आध्यात्मिक साधनाओं का अभ्यास किया जाए तो पूरी होने वाली इच्छायें न सिर्फ जीवन बदल सकती हैं बल्कि जीवन में दिव्यता भी आती ही है । हो सकता है कि प्रारब्धवश उन इच्छाओं को पूरा करने में थोड़ा समय लग जाए लेकिन आध्यात्मिक साधनाओं की ऊर्जा आपका मनोबल बनाए रखेगी और आखिरकार उन इच्छाओं को पूरा होना ही होगा । यह एक सत्य है और एक तथ्य भी है । ऐसा मेरा अनुभव है ।
प्रश्नः ऐसा क्या किया जाए कि हम अपने अहं और आसक्तियों का त्याग कर सकें?
उत्तरः यही वह समय होता है जब जीवन में सदगुरु की आवश्यकता महसूस होती है । लगता है कि काश जीवन में कोई गुरु ऐसे होते जो मेरी समस्या का समाधान बता सकते । ये बात उनके लिए तो ठीक है जिनका कोई गुरु नहीं है । लेकिन जो गुरु परंपरा से पहले से ही जुड़े हैं, उनको अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि गुरु ने जो भी समाधान बताया है वह उनके लिए कार्य करेगा ही ।
(क्रमशः)….
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