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महाशांति साधना विधानः आरोग्य सिद्धि प्रयोग

Updated: Aug 7

स्थूल जगत और कर्म फल


एक बार भगवान विष्णु अपनी योग निद्रा में थे । अचानक उनको ऐसा लगा जैसे कि उनका कोई भक्त कष्ट में है । भगवान स्वयं अपना रथ लेकर उस स्थान पर पहुंचे जहां पर वह भक्त भगवान को याद कर रहा था । वह भक्त था एक धोबी, जो अपने कपड़ों की भारी भरकम पोटली को अपने सिर पर लादकर जा रहा था । धोबी चलता जा रहा था लेकिन भगवान का भजन भी करता जा रहा है । अपने कष्ट से बेपरवाह धोबी को भगवान का भजन करने में भी बड़ा आनंद आ रहा था । भगवान से उसका कष्ट देखा नहीं गया तो उन्होंने धोबी को रोककर कहा कि तुम रथ पर आ जाओ तो मैं तुमको गंतव्य तक पहुंचा दुंगा । धोबी ने जैसे ही भगवान को देखा, भगवान को साष्टांग प्रणाम किया और रथ पर चढ़ गया । लेकिन भगवान भी आश्चर्य में थे, धोबी ने अभी भी पोटली अपने सिर पर ही लाद रखी थी । भगवान ने समझाया कि तुम चाहो तो इस पोटली को रथ में ही रख सकते हो । लेकिन धोबी ने कहा कि भगवान, मैं नीची जाति का जरुर हूं लेकिन इतना भी नीच नहीं कि अपना भार आपके रथ पर रख दूं ।


अब ऐसे व्यक्ति को तो भगवान भी नहीं समझा सकते । जब रथ जा ही रहा है तो इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि पोटली आपके ऊपर रखी है या रथ के ऊपर, भगवान को तो उसका भार उठाकर ले ही जाना है ।

भगवान से उसको नाना प्रकार से समझाने की कोशिश की लेकिन अंततः भगवान ही भक्त से हारते हैं ।


कहानी सच्ची है या झूठी, वो तो भगवान ही जानें लेकिन, इसका सांकेतिक महत्व बहुत है । क्या हम सबके जीवन में ऐसा नहीं होता है? हम सब अपनी तृष्णा, इच्छायें, आकांक्षायें, वासनायें, क्रोध, लोभ, अहंकार, दुःख, निराशा, अवसाद इत्यादि की गठरी बनाकर अपने सिर पर रखकर ही तो चलते हैं । और, इसी गठरी के बोझ तले ही एक दिन हमारा राम नाम सत्य भी हो जाता है । चार लोग आते हैं और हमें हमारी गठरी समेत श्मशान में फूंक आते हैं ।

हम तो फिर भी जल जाते हैं पर शायद हमारे कर्मों की गठरी अगले जन्म में हमारा फिर से इंतजार करती हुयी मिलती है और ये चक्र अनंत काल से चला आ रहा है ।

फिर जब कभी हमारे पुण्य कर्म फलित होते हैं तब सदगुरु जीवन में आते हैं । वह भी भगवान की तरह हमसे कहते हैं कि इस गठरी को अब तू मेरे हवाले कर दे और शांति से इस जीवन यात्रा को पूरा कर ...

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