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सदगुरु कृपा विशेषांक (चिंता निवारण विशेषांक) - भाग २

Updated: Aug 29, 2023

पिछले अंक में हमने इस बात को समझने का प्रयास किया था कि किस प्रकार एक क्षण मात्र के निर्णय का हमारे जीवन पर दूरगामी असर पड़ता है । उसी प्रकार से इस अंक में हम उन दो महत्वपूर्ण तथ्यों को समझने का प्रयास करेंगे जो प्रारब्ध वश होने वाली घटनाओं के परिणाम को विपरीत होने से बचाने में हमारी मदद कर सकते हैं -


  1. कीमत का भुगतान

  2. इष्ट - स्थापन


महाभारत में एक कथा का वर्णन आता है जब दुर्योधन ने अपने छल भरे प्रेम का दिखावा करके महर्षि दुर्वासा को वनवासी पाण्डवों के यहां भोजन करने भेज दिया । महर्षि दुर्वासा तो सब जानते थे, फिर भी वह परीक्षा लेने के लिए वनवास कर रहे पाण्डवों के यहां भोजन को आते हैं और वह भी अपने दस हजार शिष्यों के साथ । यहां उन्होंने भोजन करने की इच्छा जताई ।


हालांकि युधिष्ठिर के पास भगवान सूर्य से प्राप्त चमत्कारिक अक्षय पात्र था जिसकी मदद से हजारों लोगों को भी भोजन कराना संभव था लेकिन, तब तक पांडवों सहित द्रौपदी भोजन कर चुकी थी । चूंकि पांडवों के पास भगवान सूर्य के चमत्कारिक पात्र से तब तक ही भोजन प्राप्त करने का वरदान था, जब तक द्रौपदी भोजन नहीं कर लेती । ऐसे में अब भोजन कराना संभव नहीं था । अब पांडव ऋषि के श्राप की आशंका से चिंता में पड़ गए । लेकिन हमेशा की तरह इस संकट में भी द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को ही याद किया । भक्त की पुकार सुन भगवान भी तुरंत वहां पहुंच गए ।


इस समय महर्षि दुर्वासा शिष्यों सहित स्नान के लिए नदी पर गए हुए थे । भगवान श्रीकृष्ण ने भी आते ही भूख लगने की बात कहकर भोजन ही मांग लिया । ये सुन द्रौपदी ने शर्म से सिर झुकाकर सारा भोजन खत्म होने की बात कही । इस पर कृष्ण ने द्रौपदी को भोजन का पात्र लाने को कहा । जब द्रौपदी वह पात्र लेकर आईं तो उस पर चावल का एक दाना बचा हुआ मिला, श्रीकृष्ण ने वही दाना खा लिया । परम ब्रह्म के उस एक दाने के खाने से ही ब्रह्माण्ड के सभी जीवों का पेट भर गया, जिसके बाद दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों सहित वापस वहां से लौट गए । इस तरह भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की वनवास में भी लाज रखी ।


यहां पर प्रश्न ये भी उठता है कि क्या भगवान कृष्ण बिना उस चावल को खाये ही महर्षि दुर्वासा की भूख शांत नहीं कर सकते थे?


इसका उत्तर यही है कि परमात्मा चाहे तो क्या नहीं कर सकते । लेकिन ये कर्म जगत है, यहां कीमत चुकाये बिना कुछ नहीं मिल सकता । द्रौपदी को भी कीमत चुकानी पड़ी थी, फिर भले ही वह कीमत मात्र उस चावल के एक दाने से ही क्यों न चुकायी गयी हो । ईश्वर भी इस कर्म जगत के नियम को नहीं बदलते हैं । वो चाहें तो मात्र एक चावल के दाने से भी आपने पूरे जीवन भर के लिए धन धान्य की व्यवस्था कर सकते हैं लेकिन ऐसा कुछ हो, उससे पहले अब यहां दूसरा तथ्य भी समझना आवश्यक है - शरीर में इष्ट का स्थापन


भगवान कृष्ण तो अर्जुन सहित अन्य पाण्डवों के भी परम मित्र थे लेकिन उनको संकट पड़ने पर पुकारा किसने?


द्रौपदी भगवान कृष्ण की न सिर्फ सखी थीं बल्कि उनकी अनन्य भक्त भी थीं । और सही मायनों में उन्होंने भगवान कृष्ण को अर्जुन से भी बहुत पहले ही पहचान लिया था और भगवान कृष्ण को अपने ह्रदय में ही स्थापित कर लिया था । अगर ऐसा न हुआ होता तो उनकी एक पुकार पर ही भगवान इस प्रकार दौड़े न चले आते ।


इतिहास साक्षी है कि भक्त की पुकार पर भगवान सदा ही दौड़े चले आते हैं बस शर्त इतनी सी है कि पुकार दिल की गहराई से की जाए ।

 

प्रश्नः हम किस प्रकार से कीमत चुका सकते हैं?


सबसे पहले तो ये बार - बार मांगना बंद कीजिए । ऐसा लगता है कि जैसे हम लोग भिखारी हैं । आप लोग ये क्यों नहीं समझते हैं कि हम परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के शिष्य हैं और उनका शिष्य इस प्रकार से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए क्यों गिड़गिड़ाता फिरता है । अगर आपको कुछ चाहिए तो आप साधना करें । मन लगाकर साधनायें करें और लंबी साधनाओं में बैठें । कम से कम 40 दिन तो किसी साधना के मंत्र जप के लिए बैठना ही चाहिए । इतने समय आप अपनी इच्छाओं को एक ओर समेटकर रख दें और मन लगाकर उस साधना का जप करें । अगर 40 दिन से भी अधिक किसी मंत्र का अभ्यास किया जाता है तो वह मंत्र स्वयं ही जाग्रत होकर आपके कार्य करने लग जाता है ।


प्रश्नः अगर इच्छा नहीं करेंगे तो पूरी कैसे होगी?


कौन कहता है कि इच्छा न करें । पर बार - बार कहने से क्या फायदा ?

इसको ऐसे समझिये कि अगर हम दुकान पर जाते हैं और एक किलो शक्कर मांगते हैं तो क्या दुकानदार देता नहीं है? अवश्य देगा, शर्त बस इतनी सी है कि आपके पास चुकाने लायक मूल्य अवश्य हो । अब ऐसा तो होता नहीं है कि आपके पास मूल्य है लेकिन आपको बार - बार उसको बोलना पड़ता हो । हां, ये अवश्य हो सकता है कि दुकान पर भीड़ होने से आपको कुछ समय अवश्य लग सकता है लेकिन जब आपका नंबर आयेगा तो आपको भी आपकी मनोवांछित वस्तु अवश्य मिल ही जाएगी ।


जब एक सामान्य दुकानदार आपके मूल्य के बदले आपको सांसारिक पदार्थ दे सकता है तो क्या आपके गुरु या इष्ट आपकी साधना के बदले आपकी मनोकामना पूरी नहीं कर सकते? अवश्य कर सकते हैं । आवश्यकता तो इस बात की है कि आपके पास साधना रुपी पर्याप्त पूंजी हो । जैसे ही आपकी साधना का स्तर एक विशेष स्तर तक पहुंचता है, आपके कार्य स्वतः ही संपन्न हो जाते हैं ।


तो जैसी इच्छा आपकी हो, कम से कम उस स्तर की साधना तो आपको करनी ही चाहिए । बाकी अपने ह्रदय में बैठे हुए सदगुरुदेव महाराज जी से ही पूछ लीजिए । आपको स्वतः ही पता चल जाएगा कि आपका स्तर अभी क्या है और जिस इच्छा की पूर्ति आप करना चाहते हैं, उसके लिए क्या स्तर होना चाहिए ।


प्रश्नः इससे हम कीमत चुकाएंगे कैसे?


सरल है, जो भी साधना या मंत्र जप आप करें, उसे रोजाना, बिना किसी लाग - लपेट के सीधे ही अपने सदगुरुदेव महाराज के श्री चरणों में समर्पित कर दें । गुरु महाराज हमारे इस जीवन के और पूर्व जन्मों के खातों में भी अदला - बदली कर सकते हैं इसलिए ये अपने गुरु के ऊपर छोड़ देना चाहिए कि वह इसे कैसे करेंगे । अपना काम है साधना करना - एक बार अपने मन की प्रार्थना सदगुरुदेव के श्री चरणों में रख दीजिए और फिर भूल जाइये कि क्या कहा था । अगर इस प्रकार निरंतर साधना में जुटे रहेंगे तो सदगुरुदेव महाराज आपकी इच्छा का मान अवश्य रखेंगे । यही आध्यात्मिक जगत में ऊपर उठने का सूत्र भी है ।


प्रश्नः पर मन को कैसे संभालें? जीवन में इतना संकट है कि मन स्थिर रखकर साधना नहीं की जा सकती है । अपनी इच्छाओं को एक किनारे पर रखकर साधना कर पाना संभव नहीं है । लगता है कि जल्दी से काम हो जाए और इस संकट से बाहर आ जाएं ।


जो चीज स्थिर नहीं रह सकती, उसका प्रयोग करना मनुष्य के बस में नहीं होता है । अगर आपका टीवी कोई हिलाता रहे तो क्या आप टीवी देख सकते हैं? अगर आपकी मोटर साइकिल का हैंड़ल या कार का स्टीयरिंग कोई हिलाता रहे तो क्या आप सही से गाड़ी चला सकते हैं? नहीं न । तो फिर जब साधना की बात आती है तो बिना मन को स्थिर किये आप साधना कर कैसे सकते हैं । मन को तो स्थिर करना ही होगा । अपने मन की दुविधाओं को आपको समेटना ही होगा । पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ साधना करेंगे तभी सफलता मिल सकती है ।


प्रश्नः पर अब इतना आत्मबल नहीं बचा है कि मन पर काबू रखा जा सके । क्या करुं?


करना क्या है, सबसे पहले जाकर गुरु दीक्षा ग्रहण करें । सदगुरुदेव महाराज जी से प्रार्थना करें, अपनी समस्या बताकर उनसे याचना करें कि किस प्रकार से इस परिस्थिति से निकला जा सकता है । अगर गुरुदेव महाराज किसी शक्तिपात दीक्षा के लिए कहें तो यह आपका सौभाग्य होगा । अगर गुरु से शक्तिपात दीक्षा प्राप्त हो जाए तो समझ लीजिए कि 50 प्रतिशत काम तो आपका हो ही गया । यही शक्ति आपको आत्मबल प्रदान करेगी और जरुरी साहस भी ताकि आप समस्या से जूझ सकें । बाकी का कार्य आपकी साधना के माध्यम से होगा ।

इसीलिए दोनों ही चीज जरुरी हैं - शक्तिपात भी और साधना भी । इससे आपको आत्मबल प्राप्त होगा जो कि किसी भी संकट से बाहर निकलने के लिए बहुत आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है ।


कई बार समस्या दैवीय कारण से भी होती है । तो ध्यान रखिये कि कुछ समस्याएं मात्र साधना करने से ही खत्म हो जाती हैं और कुछ के लिए व्यावहारिक ज्ञान का भी प्रयोग करना पड़ता है । तो दोनों ही तरीकों का इस्तेमाल करना भी आपको सीखना होगा । पर आध्यात्मिक ऊर्जा के प्रयोग से आपका कार्य संपन्न अवश्य होगा, इस बात के लिए आप निश्चिंत रह सकते हैं ।


प्रश्नः इष्ट का स्थापन कैसे किया जा सकता है?


ये तो दिल का सौदा है प्रभु जी, और यहां कीमत भी केवल आंसुओं से ही चुकायी जाती है । तभी परमात्मा आपके अंतर में आकर स्वयं ही स्थापित हो सकते हैं । किसी यंत्र को तो आप मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठित कर सकते हैं लेकिन अपने स्वयं के अंतर को प्राण प्रतिष्ठित कर पाना तो केवल आंसुओं की आहुति से ही संभव है । यहां ध्यान ये रखना चाहिए कि ये आंसू प्रेम की ही अभिव्यक्ति हैं न कि किसी दुःख या कष्ट की वजह से निकले हुए आंसू ।

वैसे प्रश्न ये भी है कि हमारे अंतर में क्या भरा पड़ा है, प्रेम या कुछ और? प्रेम है तो बहुत अच्छी बात है और, अगर कुछ और है तो फिर समझ लीजिए कि प्रेम वहां नहीं रह सकता । ऐसा इसलिए कि प्रेम तो निश्छल होता है, पवित्र होता है और जहां प्रेम होता है वहां अहंकार रह ही नहीं सकता । और अगर अहंकार नहीं रह सकता तो फिर वहां घृणा, क्रोध, वासनाएं, दुख भी नहीं रह सकते, क्योंकि बाकी सब तो अहंकार के ही भाई - बहन हैं ।

 

प्रत्येक दिन हमारे लिए एक नए जीवन का आरंभ होता है । शास्त्रों में लिखा है कि जीवन का प्रारंभ और अंत गुरु स्मरण से होना चाहिए । इसी प्रकार हमारे दिन का प्रारंभ और अवसान गुरु स्मरण से ही उचित है । ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि किसी भी प्रकार की पूजा, साधना, उपासना व्यर्थ है, जब तक कि जीवन में गुरु न हो ।

साधक या गृहस्थ को चाहिए कि अपने दाहिनी ओर या सामने गुरु का आसन बिछा ले, उस पर बैठे गुरु की कल्पना करे । अगर उनका चित्र या मूर्ति हो तो उसे अपने सामने रखे और निम्न गुरु – पाठ करे, उसके बाद ही किसी अन्य प्रकार की पूजा, व्रत-साधना या अनुष्ठान आदि संपन्न करे ।


श्री गुरु पादुका पंचकम्


ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्याम् नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः ।

आचार्य सिद्धेश्वरपादुकाभ्यो नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्याम् ।। 1 ।।


ऐंकारह्रींकाररहस्ययुक्त श्रींकारगूढ़ार्थमहाविभूत्या ।

ओंकार गूढ़ार्थमहाविभूत्या नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ।। 2 ।।


होत्राग्नि होत्राग्नि हविष्यहोतृ होमादिसर्वाकृतिभासमानम् ।

यद् ब्रह्म तद्बोधवितारिणीभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ।। 3 ।।


कामादिसर्पव्रजगारुड़ाभ्यामं विवेकवैराग्यनिधिप्रदाभ्यां ।

बोधप्रदाभ्यां द्रुतमोक्षदाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ।। 4 ।।


अनंतसंसारसमुद्रतार नौकायिताभ्यां स्थिरभक्तिदाभ्यां ।

जाड्याब्धिसंशोषणवाडवाभ्यां नमो नमः श्री गुरुपादुकाभ्याम् ।। 5 ।।


ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।

 

मयूरेश स्तोत्र

चिन्ता एवं रोग निवारण के लिए


सदगुरुदेव ने अपनी पुस्तक गोपनीय दुर्लभ मंत्रों के रहस्य में एक स्तोत्र दिया है - मयूरेश स्तोत्र । यह एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है और प्रत्येक साधक के पास होनी ही चाहिए । जिनके पास नहीं है, वह इसको गुरुधाम से मंगवा सकते हैं । यह तो एक अदभुत ग्रंथ है जो आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक वरदान है ।

इस पुस्तक में इस स्तोत्र से संबंधित साधना विधान दिया गया है । जो लोग इसको साधनात्मक रुप से करना चाहते हैं, वह इस पुस्तक में दी गयी विधि से साधना कर सकते हैं ।


मैं यहां पर केवल ध्यान और स्तोत्र दे रहा हूं । जो लोग मुक्त भाव से साधना करने में यकीन रखते हैं, उनके लिए इतना विधान भी पर्याप्त है । भगवान गणपति से संबंधित इस स्तोत्र का महत्व कितना है इसको शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए तो संभव नहीं है । गुरु प्रेरणा से आज इस स्तोत्र को यहां प्रकाशित किया जा रहा है ताकि इसको प्रत्येक शिष्य, साधक और पाठक के लिए उपलब्ध कराया जा सके ।


मयूरेश स्तोत्र

सबसे पहले भगवान गणपति को भक्ति पूर्वक प्रणाम करें और निम्न ध्यान मंत्र का उच्चारण करें -


खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरं प्रस्यन्दन्मधुगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम् ।


दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरं वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् ।।


सिन्दूराभं त्रिनेत्रं पृथुतरजठरं हस्तपद्मैर्दधानं दन्तं पाशांकुशेष्टान्पुरुकरविलसद्वीजपूराभिरामम् ।


बालेन्दुद्यौतमौलिं करिपतिवदनं दानपूरार्द्रं गण्डं योगीन्द्रं बद्धमूषं भजत गणपतिं रक्तवस्त्रांगरागम् ।।


अब इसके बाद भगवान गणपति की 12 नामों से स्तुति करें -


सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ।।


धूम्रकेतुर्गणाध्यक्ष्यो भालचंद्रो गजाननः । द्वादशै तानि नामानि यः पठेच्छ्रणुयादपि ।।


विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।।


मयूरेश स्तोत्रम् ब्रह्मोवाच


पुराण पुरुषं देवं नाना क्रीड़ाकरं मुदाम् । मायाविनं दुर्विभाव्यं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


परात्परं चिदानंदं निर्विकारं ह्रदि स्थितम् । गुणातीतं गुणमयं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


सृजन्तं पालयन्तं च संहरन्तं निजेच्छया । सर्वविघ्नहरं देवं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


नानादैत्यानिहन्तारं नानारूपाणि विभ्रतम् । नानायुधधरं भक्त्वा मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


इंद्रादिदेवतावृन्दरेभिष्टुमहर्निशम् । सद्सद्व्यक्तमव्यक्तं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


सर्वशक्तिमयं देवं सर्वरूपधरे विभुम् । सर्वविद्याप्रवक्तारं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


पार्वतीनन्दनं शम्भोरानंदपरिवर्धनम् । भक्तानंदकरं नित्यं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


मुनिध्येयं मुनिनुतं मुनिकामप्रपूरकम् । समष्टिव्यष्टिरुपं त्वां मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


सर्वज्ञाननिहन्तारं सर्वज्ञानकरं शुचिम् । सत्यज्ञानमयं सत्यं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


अनेककोटिब्रह्मांड नायकं जगदीश्वरम् । अनन्त विभवं विष्णुं मयूरेशं नमाम्यहम् ।।


मयूरेश उवाच


इदं ब्रह्मकरं स्तोत्रं सर्वपापप्रनाशनम् । सर्वकामप्रदं नृणां सर्वोपद्रवनाशनम् ।।


कारागृह गतानां च मोचनं दिनसप्तकात् । आधिव्याधिहरं चैव भुक्तिमुक्तिप्रदं शुभम् ।।

 

निवृत्ति मंत्र


जीवन में कोई भी व्यक्ति सर्वगुण संपन्न नहीं हो सकता । काम, क्रोध, लोभ, मोह, वासना, आसक्ति इत्यादि विचारों का मन में प्रवेश होना इस कलयुग की विशेषता है । मन पर अगर नियंत्रण है तो अच्छी बात है लेकिन क्या करें कि जब कोई विचार हमारे आचरण की पवित्रता को नष्ट करने पर आमादा हो जाए । या उससे भी खराब बात - मन में गुरु के प्रति संदेह उत्पन्न हो जाए ।


ऐसी अथवा इसी प्रकार की अनेक परिस्थितियां जीवन में कभी भी बन सकती हैं; अगर ऐसा कोई भी विचार में आये तो निवृत्ति मंत्र का मानसिक रुप से 10 - 15 बार उच्चारण कर लेने मात्र से ही अनावश्यक विचारों से मुक्ति पायी जा सकती है । यों भी अगर इसी मंत्र को अपने दैनिक साधना क्रम में शामिल करके नित्य प्रति 1 माला जप लेने से भी पूरे दिन भर राहत रहती ही है ।


निवृत्ति मंत्र

।। ऊँ तत्सवितुर्वरेण्यं सर्वदोष पापान्निवृत्तय धियो यो नः प्रचोदयात् ।।

(Om Tatsa Viturvarenyam Sarv Dosh Papaan Nivrattay Dhiyo Yo Nah Prachodayat)

 

गुरु पादुका पंचक स्तोत्र का उच्चारण आसान ही है । मयूरेश स्तोत्र की लय और उच्चारण अपेक्षाकृत कठिन है इसलिए इस स्तोत्र की ऑडिओ फाइल को Youtube पर अपलोड़ कर दिया गया है और उसकी लिंक यहां शेयर की जा रही है ताकि साधकों को एक आइडिया मिल सके कि किस प्रकार से इस स्तोत्र को लय में गाया या उच्चारण किया जा सकता है ।


मयूरेश स्तोत्र



इस स्तोत्र को PDF में आप यहां से डाउनलोड़ कर सकते हैं ।

मयूरेश स्तोत्र
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इस स्तोत्र की Audio file आप यहां से डाउनलोड़ कर सकते हैं ।



 

अपने दैनिक साधना क्रम में गुरु पादुका पंचकम् और मयूरेश स्तोत्र को शामिल करने से जीवन में चिंताओं का निराकरण होता ही है और जीवन में संकटों से भी मुक्ति मिलती ही है ।


आप सब भी इन दिव्य साधनाओं को अपने जीवन में पूर्ण रुप से आत्मसात कर सकें और इस पवित्र आध्यात्मिक ऊर्जा के माध्यम से जीवन में समस्याओं पर विजय प्राप्त कर सकें, ऐसी ही मैं सदगुरुदेव महाराज के श्री चरणों में विनम्र निवेदन और प्रार्थना करता हूं ।


अस्तु ।

 
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