इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।।
यह श्रीमद्भगवतगीता के अध्याय १३ का प्रथम श्लोक है जिसमें क्षेत्रज्ञ शब्द का वर्णन आया है । भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुये कहते हैं कि हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र नाम से जाना जाता है और इसको जो जानता है उसको (उनके तत्व को जानने वाले) ज्ञानीजन क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।
अब सवाल उठता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस शरीर को क्षेत्र क्यूं कहा है । तो श्रीमद्भगवतगीता में ही इस बात को स्पष्ट किया गया है कि जैसे खेत में बोये हुये बीजों का उनके अनुरुप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोये हुये कर्मों के संस्काररुप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम क्षेत्र ऐसा कहा है ।
अक्सर हम सबको एक सवाल से 2 - 4 होना पड़ जाता है कि जब संसार में प्रारब्ध अनुसार सब कुछ निश्चित है तो साधना क्यों की जाए । आखिर साधना करने से मिलता क्या है? लोग यह सवाल अवश्य करते हैं कि साधना करने से क्या हो जाएगा? या तुमको ही साधना करने से क्या मिल गया है? सवाल अनेक हो सकते हैं पर आशय आप समझ गये होंगे ।
ऐसा ही सवाल एक बार मैंने सदगुरुदेव से पूछा था तो वह मुस्कुरा पड़े । मेरे सवाल के जवाब में उन्होंने एक कथा सुनायी ।
बहुत पहले एक राजा ने भी यही सवाल अपने गुरु से किया था, "गुरुजी, जब सब कुछ निश्चित है तो फिर साधना करने से क्या लाभ? आखिर हम आध्यात्म के रास्ते पर चलें भी तो क्या मिलेगा?" गुरुजी ने कहा कि हे राजन, आपके इस प्रश्न का उत्तर मैं बाद में दुंगा, अभी हम लोग जंगल में घूमने चलते हैं । राजा ने ऐसा ही किया । एक स्थान पर पहुंचकर गुरुजी ने कहा कि राजन आप इधर से चलिए, हम लोग उधर से आते हैं । इस प्रकार से 2 ग्रुप में सभी लोग बंट गये ।
जिस ग्रुप में राजा था, उसमें भी लोग जंगल में भटक कर इधर उधर हो गये । अब राजा अकेला था और प्यास भी बहुत जोर से लगी थी तो राजा ने पानी ढ़ूंढ़ना शुरु किया । ढ़ूंढ़ते - ढ़ूंढ़ते राजा एक गांव में पहुंच गया । एक कुंए पर पानी पीने पहुंचा तो वहां पर पानी भर रही एक महिला ने उसे पानी पिला दिया लेकिन उसने राजा को अपना पति कहना शुरु कर दिया । राजा बहुत आश्चर्यचकित था कि एक अनजान महिला उसे अपना पति क्यों कह रही है । इसी बात को लेकर राजा और उस महिला के बीच बहस होने लगी, इतने में ही उस महिला के बच्चे भी आ गये और वो भी राजा को अपना पिता कहने लगे ।
राजा बहुत परेशान हो गया । इधर गांव वाले भी इकट्ठे हो गये और राजा से कहने लगे कि कहीं से इतने अच्छे कपड़े मिल गये हैं तो अपने आप को राजा बता रहा है, पर हम तो जानते हैं न कि तुम तो फलां व्यक्ति हो ।
अब राजा अकेला और दूसरी तरफ पूरा गांव जो यह मानने को तैयार नहीं था कि वह व्यक्ति एक राजा है ।
खैर, गांव वालों ने निश्चय कर लिया कि अब इसे वापस नहीं जाने देना है; पिछली बार गया था तो अब आकर वापस आया है ।
रात हुयी तो सब खा - पीकर सो गये । गांव के ही कुछ लोग राजा पर रात भर नजर रखे रहे कि कहीं ये फिर से भाग न जाए ।
सुबह फिर से गांव वाले एकत्रित हुये तो इसी बात पर चर्चा चल रही थी । अचानक से गुरुजी भी वहीं पहुंच गये, गांव वालों ने एक साधु को गांव में आया देख प्रणाम किया और उनकी सेवा की ।
अब गुरुजी ने राजा को देखा और राजा गुरुजी को देख रहा है । गांव वालों ने पूरी बात गुरुजी को बतायी और कहा कि यह व्यक्ति कहता है कि वह एक राजा है, पर हम जानते हैं कि यह फलां व्यक्ति है और इस महिला का पति है ।
गुरुजी ने कहा कि यह व्यक्ति राजा ही है और इस महिला का पति नहीं है । जब गांव वाले विश्वास करने को तैयार नहीं हुये तो गुरुजी ने कहा कि अगर आपको उस व्यक्ति का मृत शरीर उसी स्थान पर मिल जाए जिस स्थान पर आपने उसे दफनाया था तो क्या आप लोग इस राजा को जाने देंगे?
गांव वालों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया । उस स्थान की फिर से खुदाई हुयी तो उस महिला के पति का मृतक शरीर अभी भी वहीं पर था । हालांकि मृतक शरीर अभी भी अच्छी हालत में था और देखा जा सकता था कि उस महिला का पति और राजा हमशक्ल ही थे ।
खैर, गांव वालों ने माफी मांगते हुये राजा को जाने दिया ।
महल वापस पहुंचकर राजा ने अपने गुरु का धन्यवाद किया और इस घटना का कारण पूछा तो गुरुजी ने कहा, "तेरे जीवन के 40 साल मैंने एक रात्रि में ही काट दिये हैं ।"
ये सुनते ही राजा की आंखों के सामने बीती रात्रि को देखा गया स्वप्न आंखों में तैरने लगा । लगा था कि जैसे सब कुछ वास्तविक हो, स्वप्न में वह महिला उसकी पत्नि थी और वह बच्चे भी उसी के थे । स्वप्न में उसने देखा था कि वह उसी गांव का वाशिंदा है और 40 साल की अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी थी ।
अब आप समझ सकते हैं कि 40 साल का कष्ट पूर्ण जीवन गुरु ने मात्र १ रात्रि में ही खत्म कर दिया और वह भी केवल स्वप्न के माध्यम से । इस बात को मानना या समझना इतना भी आसान नहीं है जैसे यहां लिख दिया है, यह तो केवल गुरु और शिष्य के बीच की बात है और, गुरु भी इस प्रकार की कृपा सभी शिष्यों पर नहीं करते हैं । विरले ही होते हैं ऐसे शिष्य जिन पर गुरु इस प्रकार की कृपा करते हैं और ऐसे शिष्यों का समर्पण भी उच्च कोटि का ही होता है ।
पर उनका क्या, जिनका समर्पण गुरु के प्रति है तो लेकिन अभी भी कुछ कमी है ....?
इस विषय में सिर्फ इतना ही कहना उचित है कि गुरु की कृपा अपने प्रत्येक शिष्य पर बरसती ही है । कोई शिष्य लायक होता है और कोई नालायक, लेकिन गुरु के लिए तो वो सब बराबर ही हैं और गुरु प्रत्येक शिष्य पर सम भाव से कृपा करते हैं । हालांकि कुछ तथ्यों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए कि जो साधक या शिष्य सप्रयास गुरु की कृपा प्राप्ति के लिए साधना, जप, तप इत्यादि करते हैं उन पर गुरु का ध्यान प्रेमवश जाता है और जो कुछ भी नहीं करते हैं उनकी तरफ ध्यान कर्तव्यवश जाता है । अर्थात अगर आप कुछ नहीं भी करेंगे तब भी गुरु आपको कुछ न कुछ अवश्य देंगे पर यह उनके प्रेम के कारण नहीं होगा, बल्कि इसलिए कि आप उस गुरु के पिछले कई जन्मों से शिष्य हैं और इस जीवन में भी आपको सही मार्ग पर भेजना गुरु का कर्तव्य है ।
इसका मतलब यह भी है कि हमारा प्रयास गुरु के प्रेम की प्राप्ति का होना चाहिए । उनका प्रेम प्राप्त हो गया तो कृपा तो स्वतः ही प्राप्त हो जाएगी ।
अब आते हैं मूल प्रश्न पर कि साधना करने से आखिर होता क्या है...?
हम जब भी साधना करते हैं और मेरा यहां साधना करने से तात्पर्य मंत्र जप करने से है, तो एक समय बाद मंत्र की ऊर्जा प्रत्यक्ष प्रकट होने लगती है । इससे आपके अंदर की नकारात्मकता समाप्त होने लगती है और अगर आप अभ्यास जारी रखें तो यह ऊर्जा ग्रहों की ऊर्जा को भी संतुलित करने में मदद करती है ।
अगर आप किसी मंत्र का अभ्यास ३ महीने तक लगातार करते रहें तो आप इस बात को प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं कि आखिर मंत्रात्मक ऊर्जा काम करती कैसे है ।
उदाहरण के लिए - अगर आप किसी परेशानी से ग्रस्त हैं तो गुरु प्रदत्त मंत्र की साधना आप करना शुरु कर दीजिए । ३ महीने के अंदर उस समस्या का निवारण स्वतः हो जाता है या होने लगता है । लेकिन सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि आपको स्वयं पर, अपने गुरु पर, मंत्र और इष्ट पर कितना विश्वास है । अगर आपको स्वयं पर ही विश्वास नहीं है तो परमात्मा पर आप कैसे विश्वास कर सकेंगे ।
एक तथ्य यह भी है कि ग्रहों की ऊर्जा आपके प्रारब्ध के अनुसार आपको प्रभावित करती है । यही कारण है कि कभी हम सुखी होते हैं और कभी दुखी । लेकिन जो व्यक्ति मंत्र साधना में लगा रहता है उसको ग्रहों की ऊर्जा ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाती है । अगर प्रभाव होता भी है तो गुरु उस प्रभाव को न्यूनतम कर देते हैं ।
अपना ही उदाहरण देता हूं - पिछले १ महीने में मैं तीन बार मृत्यु तुल्य कष्ट से होकर गुजरा हूं और तीनों ही बार सदगुरुदेव ने प्राण रक्षा की है और तीनों ही बार बहुत कम समय के अंदर ही मैं वापस अपने सामान्य जीवन में लौट सका हूं ।
तीसरी बार का अनुभव तो कुछ ऐसा था जैसे कोई धूमकेतु बस पृथ्वी से टकराने वाला हो (उदाहरण दे रहा हूं), भावनात्मक रुप से शरीर की ऊर्जा पूरी तरह खत्म हो जाए और सदगुरुदेव आकर बस धूमकेतु को पृथ्वी से टकराने से रोक दें । उस दिन मैंने स्पष्ट रुप से महसूस किया कि सदगुरुदेव किस प्रकार से अपने शिष्यों का ख्याल रखते हैं । मेरे अंदर इतनी क्षमता नहीं थी कि मैं उस दिन की साधना कर पाता लेकिन फिर भी मैं अपना साधना कर्म करने चल पड़ा । उस वक्त मेरी बेटी (जो अभी केवल ३ साल की है) ने मुझे साधना करने से ऐसे रोका जैसे सदगुरुदेव स्वयं कह रहे हों कि चल बेटा, कोई बात नहीं, आज रहने दे, कल से साधना करना ।
और सच में, अगले ही दिन से पुनः सामान्य रुप से साधना कर पाने में सक्षम था ।
कहने का अर्थ है कि इस क्षेत्र रुपी शरीर को प्रारब्ध के अनुसार फल भोगना ही होता है । लेकिन जब आप साधना रूपी कर्म में लगातार लगे रहते हैं तो सदगुरुदेव भी आपसे प्रसन्न होकर आपके कष्टों को कम कर देते हैं । अब जैसा जिसका स्तर, वैसी ही कृपा भी उसको प्राप्त होती ही है ।
(क्रमशः)...
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