गुरु मंत्र और साधना का महत्व-भाग १
- Rajeev Sharma
- Jun 17, 2021
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Updated: Aug 7
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।।
यह श्रीमद्भगवतगीता के अध्याय १३ का प्रथम श्लोक है जिसमें क्षेत्रज्ञ शब्द का वर्णन आया है । भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुये कहते हैं कि हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र नाम से जाना जाता है और इसको जो जानता है उसको (उनके तत्व को जानने वाले) ज्ञानीजन क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।
अब सवाल उठता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस शरीर को क्षेत्र क्यूं कहा है । तो श्रीमद्भगवतगीता में ही इस बात को स्पष्ट किया गया है कि जैसे खेत में बोये हुये बीजों का उनके अनुरुप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोये हुये कर्मों के संस्काररुप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम क्षेत्र ऐसा कहा है ।
अक्सर हम सबको एक सवाल से 2 - 4 होना पड़ जाता है कि जब संसार में प्रारब्ध अनुसार सब कुछ निश्चित है तो साधना क्यों की जाए । आखिर साधना करने से मिलता क्या है? लोग यह सवाल अवश्य करते हैं कि साधना करने से क्या हो जाएगा? या तुमको ही साधना करने से क्या मिल गया है? सवाल अनेक हो सकते हैं पर आशय आप समझ गये होंगे ।
ऐसा ही सवाल एक बार मैंने सदगुरुदेव से पूछा था तो वह मुस्कुरा पड़े । मेरे सवाल के जवाब में उन्होंने एक कथा सुनायी ।
बहुत पहले एक राजा ने भी यही सवाल अपने गुरु से किया था, "गुरुजी, जब सब कुछ निश्चित है तो फिर साधना करने से क्या लाभ? आखिर हम आध्यात्म के रास्ते पर चलें भी तो क्या मिलेगा?" गुरुजी ने कहा कि हे राजन, आपके इस प्रश्न का उत्तर मैं बाद में दुंगा, अभी हम लोग जंगल में घूमने चलते हैं । राजा ने ऐसा ही किया । एक स्थान पर पहुंचकर गुरुजी ने कहा कि राजन आप इधर से चलिए, हम लोग उधर से आते हैं । इस प्रकार से 2 ग्रुप में सभी लोग बंट गये ।
