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शक्ति प्रवाह, साधना और सिद्धि – २

Updated: Aug 7

शक्ति प्रवाह और मनुष्य शरीर


भूतकाल में एक राजा हुये थे जो अपनी प्रजा का लालन - पालन बड़े प्रेम से किया करते थे । लेकिन समय बीतने के साथ उन पर कार्य का दबाव बढ़ने लगा तो वह परेशान रहने लगे । अब उनको हर कार्य बड़ा भारी लगने लगा और ऐसा प्रतीत होता कि मानो सारे राज्य का भार उन्हीं के ऊपर आ गया है । रातों की नींद गायब हो गयी और मन वैराग्य की ओर मुड़ने लग गया ।


ऐसा सबके साथ होता ही है । जब हम जिम्मेदारियों से भागना चाहते हैं तो सीधे वैरागी बन जाना चाहते हैं । जबकि वैराग्य अवस्था तो कुछ और ही होती है । खैर उस पर चर्चा बाद में, अभी तो फिलहाल राजा पर केंद्रित रहते हैं ।

अब राजा ने पक्का निश्चय कर लिया था कि अब उसे सब छोड़ - छाड़कर जंगल में चले जाना है और वहां भगवान की भक्ति करनी है । निश्चय अटल था पर एक दुविधा भी थी । अब राज्य का भार किसके कंधों पर छोड़कर जाये? सारे मंत्रीगण और पार्षद एक उपयुक्त राजा की तलाश में जुट गये । महीना भर बीतने को आया लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति न मिला जो राज्य का भार संभाल सके ।


फिर वही हुआ जो हम सब करते हैं । जब मनुष्य प्रयास करते - करते थक - हार जाता है तब ही वह गुरु की शरण में जाता है । राजा भी गुरु की शरणागत हुआ ।


गुरु के पास पहुंचकर अपनी व्यथा सुनायी और कहा कि हे गुरुवर, मैं थक चुका हूं, अब होता नहीं है । अब किसी और को राज्य का भार सौंपकर वन को प्रस्थान करना चाहता हूं । लेकिन अभी तक मेरा कोई विकल्प नहीं मिला है मुझे । अब क्या करुं गुरुवर?

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