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सदगुरु कृपा विशेषांक - क्रिया योग विशेषांक


भाग 1 - मंत्र दिशा ज्ञान एवं कर्म फल भुगतान प्रणाली


क्रिया योग - ये एक ऐसा विषय रहा है जो सदियों से लोगों को बहुत आकर्षित करता रहा है । देखने वाली बात ये है कि इस विद्या के जितने भी आचार्य हुये हैं, किसी ने भी इस विद्या को सार्वजनिक रूप से सिखाया भी नहीं है, ये केवल गुरु - शिष्य परंपरा के माध्यम से ही आगे बढ़ती आयी है । और, आगे भी ऐसा ही होगा ।


तो सवाल ये भी है कि मैं क्यों सिखाने जा रहा हूं - इसका जवाब यही है कि मैं भी आपको क्रिया योग का केवल वह पहलू सिखाउंगा जो आपके लिए जरूरी है । यानि, अपने आपको साधना एवं भौतिक जीवन से कैसे जोड़ सकते हैं और, क्रिया योग के जिस स्वरूप को हम सीखने जा रहे हैं वह हैं - क्रिया मंत्र योग अर्थात मंत्र के माध्यम से किसी कार्य में पूर्णता प्राप्त करना ।


क्रिया मंत्र योग वैसे तो अपने आप में बहुत जटिल है और बिना गुरु की कृपा के नहीं सीखा जा सकता है, और इसमें भी व्यक्तिगत रुप से निरंतर साहचर्य की जरूरत पड़ती है, हरेक पड़ाव पर साधक का हाथ थामे रखना पड़ता है तब जाकर चेतना के उस स्तर को प्राप्त किया जा सकता है जहां पर जाकर किसी साधक को ये पता चलता है कि मंत्र आखिर काम कैसे करते हैं ।


इसके अलावा, एक महत्वपूर्ण तथ्य और भी है जो वैसे जरूरी तो नहीं है लेकिन अगर गुरु कृपा करें और साधक भी सचेत रहे तो परम सत्य का बोध भी इसी प्रक्रिया में हो ही जाता है । यही वह क्षण है जब साधक ये अहसास कर पाता है कि किसी कार्य के लिए किस शक्ति या विद्या का प्रयोग किया जाता है । और, जब तक इस प्रक्रिया से साधक गुजर नहीं जाता, तब तक आध्यात्मिक पथ पर प्रगति बहुत धीरे - धीरे ही हो पाती है ।


इसलिए, क्रिया मंत्र योग पर हम लोग आगे चर्चा करें उससे पहले दो विषयों पर चर्चा करना उचित रहेगा -


  1. जो लोग क्रिया योग का ज्ञान और अनुभव रखते हैं वह हिमालय की तरह शांति धारण किये हुये बैठे रहते हैं और नतीजा ये रहता है कि नये जुड़ने वाले साधक एकदम से किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं । उनको समझ ही नहीं आता है कि किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए ।

  2. दूसरी समस्या और भी जटिल है - ज्यादातर साधकों को अपने बाहुबल और ज्ञान पर इतना ज्यादा भरोसा होता है कि लगता है कि फलां साधना कर लेंगे तो काम होना ही होना है । एक साधना से नहीं होगा तो दूसरी से तो हो ही जाएगा । नहीं होगा तो गुरुजी से शक्तिपात दीक्षा ले आयेंगे ।


कितना कुछ होता है न? तो अगर आप इस क्रिया को सही से आत्मसात कर लें, तो कंजूसी को तो त्याग ही दें और प्रयास करें कि जब कोई आपके पास इस क्रिया को समझने आये तो उसका उचित मार्गदर्शन करें ।


 

अब आते हैं मूल विषय पर - क्रिया योग के माध्यम से किसी कार्य की सिद्धि या पूर्णता कैसे करें


आपने देखा ही होगा कि जब तक समय अनुकूल रहता है तब तक व्यक्ति एक अलग ही अंदाज में रहता है - Self Made वाला मोड तब तक बना ही रहता है जब तक समय प्रतिकूल होना प्रारंभ न कर दे । हालांकि ये क्रम भी प्रारब्ध के अनुसार ही होता है । अष्टक वर्ग ज्योतिष के अलग - अलग सेशन में हम लोगों ने इसे बहुत बारीकी से देखा है ।


दिलचस्प बात तो तब होती है जब जीवन में समस्या का आगमन हो जाता है - आपने देखा होगा कि व्यक्ति प्रयास करते - करते जब थक जाता है, तब भी समस्या का निदान नहीं हो पाता है । एक स्थिति तो ऐसी आती है जब व्यक्ति दोनों हाथ खड़े कर देता है । ये वो समय होता है जब उसकी कोई विद्या भी काम नहीं करती है । आप चाहे जो मंत्र जप लें, तप कर लें, यज्ञ कर लें, कुछ भी आपकी स्थिति को सुधार नहीं सकते ।


महत्वपूर्ण ये भी है कि समस्या मंत्र में भी नहीं होती है । सदगुरुदेव महाराज जो शक्तिपात करते हैं, उसमें भी कोई कमी नहीं होती है । आपकी भावना में भी कोई कमी नहीं होती है फिर भी समस्या जस की तस कैसे बनी रह जाती है । इसके मूल में कारण केवल यही है कि हमको क्रिया योग का ज्ञान ही नहीं है ।


इसी वजह से इस विषय पर एक चर्चा प्रारंभ की जा रही है ।


आप लोगों ने कुछ शब्द सुने होंगे - भक्ति योग, भाव योग, सांख्य योग इत्यादि और अब क्रिया योग (क्रिया मंत्र योग) भी सुन ही रहे हैं ।


इन सबका शाब्दिक अर्थ भी अपने आप में बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है । आपके स्व का योग भक्ति से, आपके स्व का योग भाव से ....


इसी तरह से आपके स्व का योग मंत्र क्रिया से हो जाए तो ये क्रिया मंत्र योग बन जाता है । आध्यात्मिक साधनाओं में इसका अर्थ आपकी साधना से है कि आपके स्व का योग आपकी साधनात्मक क्रिया से हो जाए तो यही क्रिया योग का वो स्वरूप है जो आपको आपकी साधना को न सिर्फ सफल कर सकता है बल्कि आपके इच्छित कार्य को पूर्णता भी दे सकता है ।

लेकिन स्व का बोध होना बड़ा ही कठिन है । हम बहुत कुछ होते हैं लेकिन अपने स्व का भान ही नहीं होता है । हम फलां अधिकारी हैं, हम फलां के बेटे हैं या पिता हैं, हमारे पास बहुत धन है, या ऐसा भी हो सकता है कि हमारे पास कुछ भी नहीं हो, हम बहुत कर्ज में फंस गये हैं, या हमारा फलां कार्य सिद्ध नहीं हो रहा है या जीवन में बड़ा कष्ट है ।


मतलब ये हैं कि हमारे स्व को छोड़कर हमें बाकी सबका बोध है ।


अब आप ही सोचिये कि हम जो साधना कर रहे होते हैं क्या वास्तव में हमारे स्व का उससे जुड़ाव होता है या केवल हमारा शरीर ही उस साधना को कर रहा होता है । मन को तो बार - बार खींचकर उस जगह पर लाना पड़ता है जहां बैठकर हम साधना कर रहे होते हैं । तो हमारे स्व का योग हमारी मंत्र साधना से क्या सच में हुआ होता है?


ये चिंतन का विषय है ।


वैसे चिंतन का विषय तो ये भी है कि जब हमारे जीवन में कोई समस्या बनी रहती है या कार्य की सिद्धि नहीं हो पाती है तो हमारा चिंतन कैसा होता है उस समय?


इसीलिए आज क्रिया योग पर चर्चा प्रारंभ कर रहे हैं । क्रिया योग मुख्य रुप से 5 स्तंभों पर टिका है -


  1. हमारे मन की भावनायें और उनकी दिशा

  2. हमारे प्रयासों की स्थिरता

  3. समस्या या कार्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण

  4. काल ज्ञान

  5. गुरु साधना


हमारे मन की भावनायें और उनकी दिशा


अगर आप किसी कार्य को करना चाहते हैं या समस्या से बाहर आना चाहते हैं तो आपको उसके लिए ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी । ये ऊर्जा सदगुरुदेव शक्तिपात से भी दे सकते हैं और ये ऊर्जा आप खुद अपने अंदर से भी प्राप्त कर सकते हैं । अपने अंदर से ही ये ऊर्जा प्राप्त करना चाहते हैं तो उसके लिए आपको क्रिया योग सीखना ही होगा, बिना उसके ये कार्य संभव नहीं है ।


तो अगर आप क्रिया योग सीखना चाहते हैं तो सबसे पहला कार्य यही कीजिए कि खुद को एक दर्शक बनकर देखिये कि मेरे जीवन में फलां समस्या है या फलां कार्य नहीं हो रहा है तो सबसे पहले ये विचार कीजिए कि इस परिस्थिति में कौन सी भावना आपके शरीर में प्रधान है ।


अगर आपके मन में क्रोध बहुत ज्यादा आता है तो फिर जान लीजिए कि इस क्रोध की ऊर्जा ही आपका काम करेगी ।


अगर आपके मन में बहुत ज्यादा दुख समा गया है तो फिर इस दुख की ऊर्जा ही आपको पार लेकर जाएगी ।


अगर मन में निराशा समा गयी है तो फिर ये निराशा ही आपको आगे लेकर जाएगी ।


मतलब यह है कि एक दर्शक बनकर देखिये तो सही कि आपके शरीर में मुख्य परिवर्तन क्या - क्या हुए हैं । इसमें आपका खर्च तो कुछ हो नहीं रहा है, लेकिन स्वयं को एक दर्शक बनकर देख पाना, बहुत नहीं तो, थोड़ा बहुत तो मुश्किल है ही ।


एक बार ये तय कर लिया कि (समस्या या इच्छा के समय) आपके शरीर में मुख्य ऊर्जा किस भाव की है तो फिर अगला कार्य होता है, उसकी दिशा तय करना । अगर दिशा संसार की तरफ है तो आपको बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा । इतना जान लीजिए कि आपके शरीर में पैदा हुयी सकारात्मक ऊर्जा को संसार बहुत खुशी से स्वीकार करता है लेकिन आपके अंदर की नकारात्मक ऊर्जा के लिए संसार में कोई स्थान नहीं है । अगर आप इस नकारात्मक ऊर्जा और उसके प्रभावों को संसार में बांटने की कोशिश भी करेंगे तो आपका जीवन स्वयं में एक उपद्रव बन जाएगा । बाद में, उसके भी नकारात्मक परिणाम ही आपको भोगने पड़ेगे ।

कहा भी जाता है कि ये संसार तो एक समुद्र है, जो उसमें डालेंगे, वही आपको वापस मिलेगा । इसलिए सकारात्मकता डालने पर सकारात्मक चीजें ही मिलती हैं और नकारात्मकता डालने पर वापस भी नकारात्मक ऊर्जा ही मिलेगी ।


इसलिए सावधान रहें और आपकी ऊर्जा की दिशा किस तरफ है, इसे लेकर बहुत सतर्क रहना चाहिए ।


तो इस ऊर्जा की दिशा किस तरफ रहे?


इसका जवाब बहुत आसान है - इस ऊर्जा की दिशा को आप अपने अंतर में विराजमान गुरु की तरफ मोड़ दीजिए ।


ध्यान रखिये, मैं यहां आपको इस ऊर्जा को अपने अंतर में विराजमान गुरु की तरफ मोड़ने के लिए कह रहा हूं ना कि व्यास पीठ पर विराजमान गुरु की तरफ मोड़ने के लिए । ऐसा इसलिए है कि हम स्वयं अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं और हमको किसी भी रूप में इसको गुरु के ऊपर नहीं लादना चाहिए ।


अब तो सवाल और भी जटिल हो गया कि जब गुरु के ऊपर कुछ लादना ही नहीं है तो अंतर में विराजमान गुरु की तरफ भी क्यों मोड़ा जाए?


जब हम अंतर में विराजमान गुरु की तरफ अपनी ऊर्जा का रुख करते हैं तो केवल अपने दुखों या कष्टों या इच्छाओं की ही ऊर्जा साथ नहीं जाती है बल्कि हमारी साधना की ऊर्जा भी उसी तरफ जाती है । इस स्थिति में आप अपने कष्टों से बाहर आने के लिए अपने तप के माध्यम से भुगतान करना प्रारंभ करते हैं लेकिन चूंकि यहां दिशा गुरु की तरफ है तो इसके साक्षी भी गुरु ही रहते है । यही कारण है कि कुछ ही समय में अनुकूलता प्रारंभ भी हो जाती है और प्रयास निरंतर बने रहने पर समस्या से बाहर आना भी संभव हो जाता है ।


तो पता कैसे करेंगे कि हम सही रास्ते पर हैं या हमारी प्रक्रिया ठीक से चल रही है?


दर्शक बनकर जिस (नकारात्मक) भाव या ऊर्जा की आपने पहचान की थी, उसमें निरंतर कमी आती रहती है और आप अपने आपको सहज महसूस करने लगते हैं, आपका मन भी आनंद से भरा रहता है । यही सबसे बड़ा लक्षण है ।


क्रमशः....


 




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