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सदगुरु कृपा विशेषांकः जीवन एक संतुलन

भाग 1 - परीक्षा की कसौटी


पूर्व में, परम पूज्य सदगुरुदेव डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी, और आज गुरु त्रिमूर्ति ने सदैव ही अपने स्वयं के जीवन के माध्यम से हम सभी शिष्यों को बहुत कुछ सिखाने का प्रयास किया है और ये करके भी दिखाया है कि हमारा जीवन दो ध्रुवों को संतुलित करने की प्रक्रिया का हिस्सा मात्र है जिसमें एक ध्रुव भौतिक जीवन से संबंधित है और दूसरा आध्यात्मिक जीवन से, बाकी सब इसके ही अंतर्गत आता है ।


हमारे गुरुजन भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को पूरी तरह आत्मसात करके ही, समाज के बीच में जाकर उन तथ्यों को सहज रूप में रख रहे हैं जिनको पाना तो उनकी अनुपस्थिति में असंभव सा ही रहता । जिस पवित्रतम आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह आज इस देश में हो रहा है, उसके मूल में हमारी गुरु परंपरा का बहुत बड़ा योगदान है । यही भारतवर्ष की श्रेष्ठता है और मैं कहता हूं कि भारत को जगदगुरु बनने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो चिरकाल से ही जगदगुरु रहा है और आगे भी रहेगा ।


लेकिन इस तथ्य को समझना उन लोगों को लिए बहुत कठिन है जो आध्यात्म को भौतिक, और, भौतिकता को आध्यात्मिक नजरिये से देखने का प्रयास करते हैं । मैं पिछले कुछ समय से इस विषय पर लिखने के लिए उचित शब्दों को खोज रहा हूं लेकिन मिल ही नहीं रहे, और मिलेंगे कहां से - ये तो पूर्णतः अनुभव का विषय है ।


फिर भी चलिए, लिखने का प्रयास करते हैं ...


पिछले कुछ समय में बहुत से भाई - बहनों के फोन आये हैं । ज्यादातर अपनी समस्या के समाधान के लिए ही फोन करते हैं । मैंने इसमें कुछ चीजों पर गौर किया है जो यहां पर लिखना उचित है -


  • हर किसी को लगता है कि उसके जीवन में महान कष्ट है !

  • जो कष्ट उनको है, शायद उसे कोई समझ नहीं पाता है !

  • क्या ऐसी कोई साधना है जिससे उनकी समस्या का हल हो सकता है?

  • क्या ऐसा भी कोई तरीका है जिसमें बिना साधना किये भी उनकी समस्या का हल हो सके?


कुछ ऐसे भी हैं जो साधना के क्षेत्र में वह नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं जिसकी उनको आकांक्षा है, तो कुछ को लगता है कि उनका जीवन ही व्यर्थ चला गया । वैसे, सवाल तो अनगिनत रहते हैं, लेकिन ये तो कृपा है सदगुरुदेव महाराज की इतने सारे सवालों के जवाब देते - देते भी मैं स्वयं को थकने से बचा पाता हूं ।


एक समय था जब मैं सोचता था कि जब कोई मरीज किसी डॉक्टर के पास जाता है तो ज्यादातर समय डॉक्टर मरीज को सिर्फ दवा लिखकर दे देते हैं, मरीज से ढेर सारी बातें क्यों नहीं करते हैं । ऐसा क्यूं करते हैं ये डॉक्टर लोग?


वैसे, अब तक तो आपको भी समझ में आ गया होगा कि ये बात मेरी भी समझ में आ गयी है 😇😁


हालांकि, ऐसा कहकर मैं आप लोगों को अपनी समस्या मेरे साथ शेयर करने से हतोत्साहित नहीं कर रहा हूं । लेकिन कुछ चीजें तो आपको समझायी ही जा सकती हैं -


  • आप पहले व्यक्ति नहीं है जिसके साथ ये समस्या हो रही है (फिर समस्या चाहे जो भी हो)

  • हर व्यक्ति जो मुझ तक पहुंचने की कोशिश करता है, ये विश्वास कर सकता है कि मैं 5 मिनट के भीतर उसकी समस्या का सटीक अनुमान लगा सकता हूं ।


इसीलिए, मुझे आपकी बात समझने के लिए आपको 1 घंटे तक सुनने की आवश्यकता नहीं है । ऐसा कहकर मैं बात की गंभीरता को कम नहीं कर रहा हूं बल्कि ये समझाने का प्रयत्न कर रहा हूं कि जिस तरह से आप लंबी - लंबी बातें करते हैं, उसकी वजह से मैं सबको समय नहीं दे पाता हूं । बहुत से लोगों को शायद ऐसा भी लगता होगा कि मैं जानबूझकर उनकी बातों का, उनके मैसेज का जवाब नहीं दे रहा हूं, जबकि ऐसा है नहीं । मैं तो प्रयास ही करता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके सवाल का जवाब मिले ही ।


फिर भी अगर आप पूरी तसल्ली के साथ बात करना चाहते हैं तो आप सेशन बुक कर लिया करें, सेशन की लिंक वेबसाइट पर पहले से ही उपलब्ध है, फिर भी यहां दे रहा हूं । वैसे भी, किसी भी ज्ञान को प्राप्त करना अगर आपके लिए सच में जरूरी है तो आपको उसके लिए शुल्क अवश्य चुकाना चाहिए ताकि जीवन में उस ज्ञान की महत्ता भी समझ आ सके । मैं पिछले कई वर्षों से निःशुल्क सेशन ले रहा हूं, बहुत से लोग लाभान्वित हुये हैं पर कई बार खुद मुझे ही लगा है कि फ्री का ज्ञान दिमाग को सुनाई तो देता है लेकिन मेरे प्रिय भाई - बहनों की अंतर्आत्मा तक पहुंच ही नहीं पाता है। ऐसी अवस्था में वो ये तो जान जाते हैं कि ये काम होगा कैसे, लेकिन चूंकि कीमत चुकाने को लेकर उनके अंदर अनिच्छा ही रहती है तो प्रारब्ध के बंधन से वो बाहर निकल ही नहीं पाते हैं । तो ये मेरे लिए भी निराशा का सबब बन जाता है कि इतना प्रयास भी किया गया, आध्यात्मिक ऊर्जा भी दी गयी, फिर भी काम नहीं हो पाया ।


हालांकि, कारण मैं भी जानता हूं - ये कर्मजगत है, बिना कीमत चुकाये आप यहां से कुछ भी लेंगे, वो आपके खाते में चढ़ जाएगा । एक तरह से ये भी एक कर्ज के जाल जैसे ही समझिए ।


तो, मेरे प्रिय भाई - बहन, अगर आपके पास पैसे नहीं हैं तब भी आप मुझसे संपर्क कर सकते हैं । मैं आपकी क्षमता के हिसाब से फीस कम कर दुंगा, लेकिन आपको अपने मन के भाव ठीक करने ही होंगे । इस बात को आत्मसात करना ही होगा कि जब हम किसी समस्या पर काम कर रहे होते हैं तो हमें प्रत्येक स्तर पर कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए, फिर चाहे वह ज्ञान की प्राप्ति के लिए सेशन की फीस हो, मंत्र जप करके उसको सदगुरुदेव के श्रीचरणों में समर्पित करना हो, अपने अहंकार को तुष्ट करने की जगह पर उसका भी समर्पण हो या फिर अपने आत्मसम्मान को भी सदगुरुदेव के श्रीचरणों में समर्पित करना पड़ जाए । कुछ भी हो, बिना उचित कीमत चुकाए आप कर्म-बंधन की इस श्रृंखला से बाहर तो नहीं आ सकते ।



अब आते हैं अपने मूल विषय पर - बात जब समस्या के समाधान की आती है तो मैं यहां एक बात स्पष्ट कर दूं कि आपकी किसी भी समस्या का समाधान कम से कम आपकी अपनी साधना के माध्यम से नहीं होता है और इस चीज को समझने के लिए ही आज हम इस विषय पर चर्चा कर रहे हैं कि अगर समाधान साधना के माध्यम से नहीं होता है तो फिर समाधान होता कैसे है । और साधना करने का हमारा उद्देश्य क्या होना चाहिए ।

 

वैसे तो प्रकृति में सब कुछ संतुलित ही रहता है और जीवन भी हमारा खुशहाल ही चल रहा होता है लेकिन, जब कभी, प्रारब्धवश, हमारी अपनी इच्छायें हम पर हावी हो जाती हैं तो संतुलन की इस प्रक्रिया में बाधा पड़ जाती है । और, संतुलन की इसी कमी की वजह से जीवन में अलग - अलग तरह की समस्यायें खड़ी हो जाती हैं ।


और ऐसा भी नहीं है कि ये सिर्फ आपके ही साथ हो रहा होता है । सच्चाई तो ये है कि प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ता है । संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसको अपने जीवन में समस्याओं से न जूझना पड़ा हो । इसलिए आप इस बात के लिए निश्चिंत हो सकते हैं कि अगर आप अपनी समस्या को 5 - 10 मिनट में भी बता देंगे तो भी उसकी गंभीरता का आंकलन सटीकता से किया जा सकता है ।


 

आध्यात्म कोई जादू नहीं है, और न ही इसे इस तरह से देखना चाहिए कि आपने कोई साधना की, और आपकी समस्या सुलझ गयी । और, न ही किसी देवी या देवता के पास इतना समय है कि आपकी हर इच्छा को पूरा करने के लिए आपकी साधना का फल तुरंत ही दे दें । वैसे भी ये किसी भी शास्त्र में नहीं कहा गया है कि आप जो भी साधना आज करेंगे तो उसका फल आपको तुरंत ही मिल जाएगा । ये कर्म जगत है और यहां प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है । लेकिन कर्म की प्रकृति के हिसाब से, मिलने वाले फल का समय भी निर्धारित होता ही है ।


उदाहरण के लिए -

  • अगर आप ग्रेजुएशन कर रहे हैं तो केवल एडमिशन लेने से डिग्री नहीं मिल जाएगी । 4 साल पढ़ना भी होगा और उसमें भी लगन लगाकर पढ़ना होगा । उसके बाद फिर उसकी परीक्षा भी देनी होगी । तब जाकर एक सर्टिफिकेट मिलता है कि अब आप डिग्रीधारी हो गये हैं । तो यहां कर्म की अवधि 4 साल होगी लेकिन परिणाम तभी मिलेगा जब आप इसकी परीक्षा पास कर लेंगे । अगर परीक्षा पास नहीं करेंगे तो फिर डिग्री भी नहीं मिलने वाली और, यहां इस बात से कोई मतलब नहीं रहता कि आप पढ़ाई में कितने अच्छे हैं ।

  • शादी करके अगर संतान भी चाहिए तो कम से कम 9 महीने तो इंतजार करना ही पड़ेगा ।


तो कर्म की प्रकृति भिन्न होने की वजह से मिलने वाला परिणाम भी अलग - अलग समय पर प्राप्त होता है । हालांकि कुछ कर्म के परिणाम तुरंत मिल जाते हैं जैसे - आप राह चलते किसी व्यक्ति को गाली दे दें तो संभव है उसका परिणाम आपको अगले 2 ही मिनट में प्राप्त हो जाए । ये भी संभव है कि अगले आधा घंटे में आपको अस्पताल में ही भर्ती होना पड़ जाए । तो, कर्म की प्रकृति ही तय करती है कि उसका परिणाम कब और कैसा मिलेगा ।


एक दिलचस्प बात बताता हूं - आपने देखा या सुना तो होगा ही कि किसी - किसी व्यक्ति को बहुत जल्दी ही साधना का फल प्राप्त हो जाता है और किसी - किसी को तो (अब तक का) पूरा जीवन गुजरने पर भी कुछ नहीं प्राप्त हो पाता है । अब ऐसे में, ज्यादातर साधक ऐसे व्यक्तियों की तरफ भागने लग जाते हैं जिसको कुछ सफलता प्राप्त हो जाती है । उनको लगता है कि फलां साधक के पास जरूर कोई विशेष मंत्र होगा जिसके बलबूते उसको सफलता मिल गयी है । ये चूहादौड़ इस तरह की होती है कि उनको अपने पास मौजूद सारे मंत्र व्यर्थ लगने लग जाते हैं । उनको लगता है कि गुरुजी ने हमें तो सस्ते वाले मंत्र पकड़ा दिये हैं और फलां साधक को जरूर कोई विशेष मंत्र दे दिया है जिससे उसका तो कल्याण हो गया और हम पीछे रह गये ।


आप देख लीजिए नजर उठाकर अपने चारों ओर । इसी प्रकार की नकारात्मकता ही हमारे आध्यात्मिक समाज में फैली हुयी मिलेगी । ज्यादा दूर मत जाइए, अपने स्वयं के अंतर में ही झांककर देख लीजिए न । जब तक जीवन में सब कुछ ठीक रहता है तो हम जय गुरुदेव, जय गुरुदेव के नारे लगाते फिरते हैं और जब जीवन में परीक्षाओं का समय आता है तो क्या हो जाता है हमारी उस श्रद्धा को, उस भक्ति को?


एक ही पल में गुरु से विश्वास खत्म । लगता है कि जो कुछ भी साधना या तपस्या की, वो सब व्यर्थ चली गयी । है न?


गुरु भी चुपचाप अपने शिष्य के भीतर बैठे - बैठे सब देखते रहते हैं कि देखते हैं इस शिष्य का विश्वास कितना मजबूत है ।


एक बार मैंने सदगुरुदेव से पूछा भी था कि आप इतनी परीक्षा लेते क्यूं हैं? तो सदगुरुदेव ने कहा कि मैं तो कभी भी परीक्षा नहीं लेता ।


सदगुरुदेव का इतना कहना था कि मेरे दिमाग के सारे तार झंकृत हो गये कि जब गुरुजी परीक्षा नहीं लेते हैं तो आखिर ये परीक्षायें लेता कौन है? और कृपा है सदगुरुदेव महाराज की कि ये तुरंत ही स्पष्ट भी हो गया कि जिन देवी - देवताओं की साधना हम करते हैं, जिनकी साधना के बलबूते हम अपने प्रारब्ध को बदलने की ख्वाहिश रखते हैं, वो भी तो आजमाकर देखती हैं कि इतने उच्च कोटि के गुरु की सिफारिश इस शिष्य के लिए आयी है तो एक बार तो इसको परीक्षा की कसौटी पर देखना ही पड़ेगा कि जितना गुरु को इससे प्रेम है, क्या उतना ही प्रेम और विश्वास इसके मन में अपने गुरु के लिए है?


क्रमशः....



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