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शारदीय नवरात्रि पर्वः जीवन का उत्सव

Updated: Aug 31, 2023

गुरु और शिष्य का संबंध बहुत पवित्र संबंध है, बिलकुल वैसा ही जैसे कि मां और उसके शिशु का होता है । देखा जाए तो मां और शिशु का ये निश्छल और दिव्य संबंध संतान के बड़े होने के साथ थोड़ा बदल जाता है । हालांकि ये बदलाव मां की तरफ से नहीं होता है अपितु संतान जब बड़ी हो जाती है तो वह बहुत समझदार हो जाती है, उस समय उसके निश्छल और दिव्य प्रेम के स्थान पर व्यावहारिक ज्ञान हावी हो जाता है । पर मां अपने मरते दम तक अपनी संतान के प्रति अपने प्रेम को कभी कम नहीं करती ।


ठीक इसी प्रकार से गुरु भी अपने शिष्यों को अपने मानस पुत्र-पुत्रियों का ही दर्जा देते हैं और उनका प्रेम शिष्य के जन्म-जन्मांतर के व्यावहारिक कर्मों के बाद भी कभी कम नहीं होता है । हर जन्म में वे अपने शिष्य को पुकारते हैं, उसको दीक्षा देकर, साधनाओं का ज्ञान देकर, उसके जीवन की परेशानियों में उसका साथ निभाकर हर प्रकार से उसका कल्याण ही करते हैं ।


किसी भी प्रकार से गुरु का केवल एक ही ध्येय रहता है कि कैसे भी उनका शिष्य पूर्णता के उस पथ पर अग्रसर हो जाए जिस पर चलकर उसका स्वयं से परिचय हो सके और फिर उस ईश्वर से एकाकार हो सके । ये बात और है कि शिष्य हर जन्म में अपने व्यावहारिक ज्ञान के चलते गुरु के दिये ज्ञान को आत्मसात करने में समय लगाता है, फलस्वरुप जब समझ आती है तब न शरीर की सामर्थ्य रह पाती है कि वह साधनाओं का अभ्यास कर सके और न ही ठीक प्रकार से मार्गदर्शन ही मिल पाता है ।


 

उस रात्रि भी मैं ध्यान लगाने का ही अभ्यास कर रहा था । सदगुरुदेव ने बहुत कृपा करके ध्यान लगाने की बहुत ही आसान विधि बतायी थी तो मैं रोज उसका अभ्यास करता रहता था । उन दिनों सूक्ष्म शरीर के माध्यम से न जाने कितने लोकों का भ्रमण किया होगा, कहना मुश्किल है पर, अगर उन स्थानों के बारे में लिखा जाए तो शायद मुमकिन है कि लोग विश्वास ही न कर सकें । इसलिए आज यहां केवल उस घटना का वर्णन है जो इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि आखिर हम हैं किस लायक पर, गुरु से मांगते क्या क्या हैं...! लेकिन इस सबके बावजूद गुरु हमको क्या प्रदान करना चाहते हैं ... !


उन दिनों लगभग हर रात्रि को ही नये स्थानों के भ्रमण पर निकल जाया करता था । उस रात्रि भी कुछ वैसा ही था । जैसे ही ध्यान लगाया, कुछ ही क्षणों में मैं कैलाश पर्वत की तरफ चल पड़ा । दरअसल सूक्ष्म शरीर की गति बहुत तीव्र होती है, आप मात्र कुछ क्षणों में ही दुर्गम स्थानों तक पहुंच सकते हैं । पर वहां ऐसा लग रहा था कि जैसे उस क्षेत्र में कुछ तूफान सा आया हुआ है; तेज हवा चल रही थी और आकाश मार्ग में धूल भी बहुत थी । पर मैं निश्चिंत होकर अपने मार्ग पर बढ़ा चला जा रहा था । वैसे जब भी मैं ध्यान लगाता तो मेरा ध्यान कैलाश पर्वत पर स्वतः ही चला जाता था । ऐसा कई बार हुआ था और आज भी मेरा गंतव्य स्थल वहीं था । लेकिन आज भाग्य कुछ अनसुलझे रहस्य खोलने के लिए मेरे मार्ग में ही तैयार खड़ा था ।


 

पिछले कई वर्ष बहुत उथल - पुथल से गुजरे थे, बिजनेस भी लगभग ठप सा ही पड़ गया था, जितने भी प्रोजेक्ट पर काम किया, सभी में कुछ न कुछ नुकसान ही हुआ था और, आमदनी अपने न्यूनतम स्तर पर थी । तो कहीं न कहीं मन में ये ख्याल तो आता ही था कि आखिर बात क्या है । इतनी साधनाएं करने पर तो आदमी सिद्ध ही हो जाएगा पर यहां तो अपने ही काम नहीं संभल पा रहे हैं । हालांकि एक बात सच ये भी है कि अपने मुश्किल दिनों में भी मैं अपने मानसिक संतुलन को बनाये रख पाने में कामयाब रहा था । हम लोग साधक हैं तो साधना की ऊर्जा हमें नकारात्मक नहीं होने देती है । हालांकि, साधना के माध्यम से स्वयं को नकारात्मकता से बचाये रखना अपने स्थान पर है और जीवन में परेशानियों से निकलकर फिर से सफलता प्राप्त करना अलग बात है । पर एक सवाल तो हम सबके मन में आता ही है कि आखिर ऐसा होता क्यूं है । इतनी साधना करते हैं पर, पता नहीं गुरुजी को हमारा ध्यान रहता भी है या नहीं? पता नहीं, मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है? इत्यादि ... इत्यादि । सवालों की लिस्ट तो इतनी लंबी होती है कि शायद खत्म ही न हो, पर भाव आप समझ ही गये होंगे ।


तो समय था ही ऐसा कि मन में सवालों की लिस्ट बनी ही रहती । पर साधना के प्रभाव के कारण उन सवालों का भी मुझ पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था । जो लोग जानते हैं वो कहते हैं कि राजीव पर तो किसी चीज का फर्क नहीं पड़ता । पर ये सच नहीं है, फर्क पड़ता है और खूब पड़ता है । बस अंतर इतना है कि किसको अपने गुरु पर अटूट भरोसा है और साधनात्मक दृष्टि से हम कितने मजबूत हैं ।


 

आज की रात्रि पहले से कुछ भिन्न ही थी । हालांकि पूर्व में मैं जब भी कभी कैलाश पर्वत पर गया था तो इस तरह का माहौल कभी नहीं था । पर आज वातावरण था ही ऐसा कि सामान्य परिस्थिति में किसी को भी डर लगने लगे लेकिन सूक्ष्म शरीर में रहते हुये भय व्याप्त नहीं हो पाता है और, सब कुछ एक कौतुक जैसा ही लगता है । मैंने दूर से ही महसूस किया कि कैलाश पर्वत नजदीक ही है तो ध्यान भी उधर ही लगा दिया ।


लेकिन मुझे सामने कुछ अजीब सा महसूस हुआ । ध्यान से देखने पर पता चला कि हवा में बीच रास्ते में ही एक लंबा सा प्रकाश प्रकट हो रहा है । थोड़ा सा और आगे चला तो स्पष्ट हुआ कि ये प्रकाशपुंज नहीं है बल्कि आकाश में ही एक रास्ता प्रकट हो रहा है । ये कुछ कुछ वैसा ही था जैसे भगवान शिव का त्रिनेत्र खुल रहा हो । मैं नजदीक गया तो पहली बार में ऐसा लगा कि जैसे भगवान शिव वहां खड़े हैं पर, जैसे ही मैं उसके अंदर गया तो पाया कि सदगुरुदेव ही वहां पर मौजूद हैं ।


जब हम सूक्ष्म शरीर में होते हैं तो बहुत से स्थानों का ज्ञान हमें स्वयं ही प्राप्त हो जाता है ।


जैसे ही मैं उस प्रकाश पुंज जैसे द्वार से अंदर गया तो मैं उसी क्षण ये जान गया था कि ये समयागार है । समयागार अर्थात काल की लाइब्रेरी । यहां अनंत कालों के प्रत्येक काल क्रम के प्रत्येक क्षण को देखा जा सकता है । आश्चर्य कि वहां सब कुछ प्रकाशमय ही था लेकिन, वो प्रकाश चमकदार नहीं था बल्कि कुछ कुछ तरल प्रकाश के समान था । वह स्थान अनंत था और हम उसके एक विशेष स्थान पर मौजूद थे । ऐसा स्थान जिसका न किसी ग्रंथ, शास्त्र अथवा पुराण में ही वर्णन है और न ही किसी ने कभी इसके बारे में कहीं लिखा है । जो शायद स्वयं में एक ब्रह्मांड है और जहां मुझे कुछ क्षणों के लिए ही सही पर, सदगुरुदेव की कृपा से ही प्रवेश मिला, लेकिन इतना देखकर भी मुझे किंचित भी आश्चर्य नहीं हुआ था बल्कि मेरा ध्यान केवल सदगुरुदेव की तरफ था ।


उस क्षण सदगुरुदेव ने केवल एक ही वाक्य कहा, "देखना चाहता है कि कैसे कर्म थे तेरे" ।


सदगुरुदेव का आशय एकदम स्पष्ट था, कि मैं अपने मानस में इतनी शिकायतें करता हूं पर कभी अपने जीवन की उन घटनाओं को स्वीकारने की कोशिश नहीं की और न ही ये जानने की कोशिश की कि आखिर ऐसा हमारे जीवन में क्यूं होता है ।


जिस स्थान पर सदगुरुदेव ने ये वाक्य कहा वहां, काल क्रम की प्रत्येक घटना को देखना संभव था और किसी भी जीवन की घटना को उसी क्षण वहीं देखा जा सकता था ।


पर अगले ही क्षण मैं अपने घुटनों पर बैठ गया था, आंखों में अश्रु थे और केवल एक ही उत्तर मेरे मुंह से निकला, "नहीं" ।


और इतना सब कुछ मात्र कुछ ही मिनटों में हो गया था । मैं वापस लौट आया और आंखों में केवल अश्रु थे । आज भी मैं जब उस घटना का स्मरण करता हूं तो मन में कोई विचार नहीं आता है । अगर कुछ आता है तो केवल अश्रु । सदगुरुदेव की कृपा का साक्षी हूं तो सिर्फ इतना ही हो पाता है मुझसे ।


 

आपको कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे कि जो कहेंगे कि हमको भगवान पर भरोसा है, बस अच्छे कर्म करे जाओ, किसी का बुरा न करो । ईश्वर जो करेगा, ठीक ही करेगा (मतलब ये भी कि साधना करने में उनकी रुचि न के बराबर ही रहती है या ऐसा कहिये कि उनको साधनाओं और मंत्रों की शक्ति पर भरोसा नहीं होता है) ।


अब ये बात भी सही ही है । ईश्वर तो कभी किसी का बुरा करता नहीं है । हमने अष्टक वर्ग में ये देखा भी है कि जीवन में जो कुछ भी है, सब पहले से निश्चित है । वैसे अगर सब कुछ पहले से निश्चित है तो ये भी निश्चित है कि यह सब हमारे स्वयं के कर्मों का ही परिणाम है । अब कर्म श्रंखला चाहे इस जन्म की हो या 10 जन्म पहले की, जब उसका गणित फलित होगा तो वह किसी न किसी जन्म में तो सामने आयेगा ही । अब ये तो गणित की ही बात है कि जो आप इस जन्म में घटित होता देख रहे हैं, उसकी तो रुपरेखा बहुत पहले ही बन गयी थी । खैर, इस विषय की गहराई में उतरना हमारा आज का विषय नहीं है । इस पर चर्चा फिर कभी और करेंगे ।


मेरा कहना मात्र इतना है कि ईश्वर सबका भला ही करता है पर अगर हम अपने जीवन में किसी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पा रहे हैं तो इस लक्ष्य को गुरु प्रदत्त मंत्र साधनाओं के माध्यम से पाने का प्रयास करना चाहिए । ध्यान रहे कि जो कार्य साधना के माध्यम से तीव्रतम गति से हो सकता है, वह गति किसी और माध्यम से संभव नहीं होती है । पर, जिनका कोई गुरु नहीं होता है अथवा जो गुरु के बताये रास्ते पर चलकर भी भटक जाते हैं, उनके जीवन में गति बहुधा नहीं आ पाती है । बार - बार घूमकर व्यक्ति उसी स्थान पर पहुंच जाता है जहां से उसने शुरु किया था ।


लेकिन, जो व्यक्ति, साधक या शिष्य अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास रखकर साधना संपन्न करते रहते हैं, उनका कल्याण निश्चित है । ये एक ब्रह्म वाक्य है और कभी भी गलत नहीं हो सकता । ऐसे साधकों और शिष्यों पर गुरु पूर्ण प्रेम बरसाते हुये, कर्म फल भोग की इस जीवन यात्रा में उनका पूरा साथ निभाते ही हैं । उनकी परेशानियों को यथासंभव कम करते जाते हैं और कहीं - कहीं तो शिष्य की पूरी परेशानी को ही अपने कंधों पर उठा लेते हैं । आवश्यकता है तो बस गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण की, उनसे निश्छल प्रेम की और, साधनाओं के माध्यम से अपने जीवन को ऊंचा उठाने की क्रिया की । ध्यान रहे कि बिना प्रेम के साधना में सफलता मिल जाए, ऐसा संभव है लेकिन पूर्णता कभी नहीं मिलेगी । इसलिए गुरु से प्रेम ही वह कुंजी है जो जीवन के कठिनतम रास्तों पर भी किस्मत का ताला खोल सकती है ।


 

नवार्ण मंत्र और उसकी साधना


सामने ही नवरात्रि का पर्व है । आगामी 17 अक्तूबर से शुरु होने वाली ये शारदीय नवरात्रि जीवन में उत्सवों का द्वार खोल देगी । आवश्यकता है तो इस दुर्लभतम क्षणों को पहचानने की और इन क्षणों में गुरु प्रदत्त साधनाओं को करने की । सदगुरुदेव ने नवरात्रि पर्व को लेकर अपने प्रवचनों में बहुत बार इन तथ्यों के स्पष्ट किया है कि नवार्ण मंत्र की साधना करने से अभीष्ट प्राप्ति में सहायता मिलती है, माता की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है और जीवन में आगे का मार्ग भी स्पष्ट हो जाता है ।


यहां सदगुरुदेव के उस प्रवचन का अंश अपलोड़ कर दिया गया है जिसमें सदगुरुदेव नवार्ण मंत्र प्रदान कर रहे हैं ।

(सदगुरुदेव प्रदत्त नवार्ण मंत्र)


हालांकि इस प्रवचन में जो नवार्ण मंत्र सदगुरुदेव ने प्रदान किया है उसमें उन्होंने प्रणव अर्थात ॐ का प्रयोग करने के लिए मना किया है ।


लेकिन इस बार नवरात्रि में आप नवार्ण मंत्र की साधना करेंगे तो उसमें आप प्रणव अर्थात ॐ का प्रयोग अवश्य कीजिए । ऐसा इसलिए है कि सदगुरुदेव ने ही यह भी स्पष्ट किया है कि प्रणव का प्रयोग करने पर और न करने पर क्या प्रभाव रहता है, हालांकि हमारे पास उसका कोई वीडिओ उपलब्ध नहीं है ।

।। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।।

।। Om Aing Hreeng Kleeng Chaamundaayai Vichche ।।


माला स्फटिक या जो कोई भी आपके पास हो । गुरु पूजन, गणपति पूजन और कलश स्थापन की विधि आप दैनिक साधना विधि पुस्तक से प्राप्त कर सकते हैं पूजन की विधि आपको श्री दुर्गा सप्तशती पुस्तक से भी प्राप्त हो जाएगी और बाजार में आसानी से उपलब्ध है । गणपति और गुरु पूजन के उपरांत माता भगवती का भी सामान्य पूजन करें ।


गुरु मंत्र की कम से कम 5 माला अवश्य करें और उसके उपरांत आप नवार्ण मंत्र की साधना संपन्न करें ।

सदगुरुदेव और माता भगवती की कृपा आपको पूर्ण रुप से प्राप्त हो, आपको अपना अभीष्ट प्राप्त हो, ऐसी ही शुभ मंगल कामना करता हूं ।


अगर आपके पास दैनिक साधना विधि पुस्तक नहीं है तो आप यहां से डाउनलोड़ कर सकते हैं -


दैनिक साधना विधि
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अस्तु ।

 
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