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शारदीय नवरात्रि पर्वः जीवन का उत्सव

Updated: Aug 7

गुरु और शिष्य का संबंध बहुत पवित्र संबंध है, बिलकुल वैसा ही जैसे कि मां और उसके शिशु का होता है । देखा जाए तो मां और शिशु का ये निश्छल और दिव्य संबंध संतान के बड़े होने के साथ थोड़ा बदल जाता है । हालांकि ये बदलाव मां की तरफ से नहीं होता है अपितु संतान जब बड़ी हो जाती है तो वह बहुत समझदार हो जाती है, उस समय उसके निश्छल और दिव्य प्रेम के स्थान पर व्यावहारिक ज्ञान हावी हो जाता है । पर मां अपने मरते दम तक अपनी संतान के प्रति अपने प्रेम को कभी कम नहीं करती ।


ठीक इसी प्रकार से गुरु भी अपने शिष्यों को अपने मानस पुत्र-पुत्रियों का ही दर्जा देते हैं और उनका प्रेम शिष्य के जन्म-जन्मांतर के व्यावहारिक कर्मों के बाद भी कभी कम नहीं होता है । हर जन्म में वे अपने शिष्य को पुकारते हैं, उसको दीक्षा देकर, साधनाओं का ज्ञान देकर, उसके जीवन की परेशानियों में उसका साथ निभाकर हर प्रकार से उसका कल्याण ही करते हैं ।


किसी भी प्रकार से गुरु का केवल एक ही ध्येय रहता है कि कैसे भी उनका शिष्य पूर्णता के उस पथ पर अग्रसर हो जाए जिस पर चलकर उसका स्वयं से परिचय हो सके और फिर उस ईश्वर से एकाकार हो सके । ये बात और है कि शिष्य हर जन्म में अपने व्यावहारिक ज्ञान के चलते गुरु के दिये ज्ञान को आत्मसात करने में समय लगाता है, फलस्वरुप जब समझ आती है तब न शरीर की सामर्थ्य रह पाती है कि वह साधनाओं का अभ्यास कर सके और न ही ठीक प्रकार से मार्गदर्शन ही मिल पाता है ।



उस रात्रि भी मैं ध्यान लगाने का ही अभ्यास कर रहा था । सदगुरुदेव ने बहुत कृपा करके ध्यान लगाने की बहुत ही आसान विधि बतायी थी तो मैं रोज उसका अभ्यास करता रहता था । उन दिनों सूक्ष्म शरीर के माध्यम से न जाने कितने लोकों का भ्रमण किया होगा, कहना मुश्किल है पर, अगर उन स्थानों के बारे में लिखा जाए तो शायद मुमकिन है कि लोग विश्वास ही न कर सकें । इसलिए आज यहां केवल उस घटना का वर्णन है जो इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि आखिर हम हैं किस लायक पर, गुरु से मांगते क्या क्या हैं...! लेकिन इस सबके बावजूद गुरु हमको क्या प्रदान करना चाहते हैं ... !


उन दिनों लगभग हर रात्रि को ही नये स्थानों के भ्रमण पर निकल जाया करता था । उस रात्रि भी कुछ वैसा ही था । जैसे ही ध्यान लगाया, कुछ ही क्षणों में मैं कैलाश पर्वत की तरफ चल पड़ा । दरअसल सूक्ष्म शरीर की गति बहुत तीव्र होती है, आप मात्र कुछ क्षणों में ही दुर्गम स्थानों तक पहुंच सकते हैं । पर वहां ऐसा लग रहा था कि जैसे उस क्षेत्र में कुछ तूफान सा आया हुआ है; तेज हवा चल रही थी और आकाश मार्ग में धूल भी बहुत थी । पर मैं निश्चिंत होकर अपने मार्ग पर बढ़ा चला जा रहा था । वैसे जब भी मैं ध्यान लगाता तो मेरा ध्यान कैलाश पर्वत पर स्वतः ही चला जाता था । ऐसा कई बार हुआ था और आज भी मेरा गंतव्य स्थल वहीं था । लेकिन आज भाग्य कुछ अनसुलझे रहस्य खोलने के लिए मेरे मार्ग में ही तैयार खड़ा था ।

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