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सूक्ष्म शरीरः गुप्त मठ और सिद्ध क्षेत्र-5

Updated: Sep 3, 2023

आवाहन भाग-33

गतांक से आगे...


सिद्ध क्षेत्र के संरक्षक के बारे में सदगुरुदेव ने बताया कि यह वे महासिद्ध होते हैं जो तंत्र के दुरुपयोग या अयोग्य व्यक्ति तक यह विद्या न पहुंचे तथा, योग्य और अधिकारी साधकों तक विद्या प्राप्ति में मददरूप हो सके, इस कार्य हेतु अपना योगदान देते हैं। उनके जीवन का उद्देश्य सिर्फ यही रहता है कि सिद्ध क्षेत्र में साधनारत साधक तथा निवास करने वाले सिद्धों को किसी भी प्रकार की कोई समस्या ना आये। इस हेतु वह निरंतर गतिशील रहते हैं।


मैंने पूछा, "सिद्ध क्षेत्र के संरक्षक इस प्रकार की जीवन क्यों पसंद करते है"? साधना में गतिशील रह कर अपने आध्यात्मिक स्तर का विकास करने की बजाय वे ऐसा कार्य करना पसंद क्यों करते है? इसके उत्तर में सदगुरुदेव ने बताया, "सिद्ध क्षेत्र के संरक्षक कोई सामान्य साधक नहीं होते, वरन जिन्होंने आतंरिक शक्तियों तथा बाह्य शक्तियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की हो, उनको ही इस प्रकार के पद पर आरूढ़ किया जाता है"। वस्तुतः ऐसा नहीं है कि कोई भी अपने आप को संरक्षक बना दे।


सदगुरुदेव ने आगे बताया कि हिमालय में स्थित एक गुप्त मठ है, जो कि दिव्य स्थान के अंतर्गत है, उस मठ के द्वारा सभी सिद्ध क्षेत्रों का नियंत्रण किया जाता है। उसी मठ के अधिष्ठात्र की अनुमति बाद ही संरक्षक का पद किसी सिद्ध को दिया जाता है।


इसके लिए दो मर्यादा का पालन होता है, एक - साधक स्वेच्छा से इस प्रकार के कार्य के लिए तैयार हो, दूसरा, उनके गुरु की आज्ञा तथा आशीर्वाद हो। इस प्रकार ऐसे कई सिद्ध अपने आवेदन का समर्पण करते है, योग्य व्यक्ति को नियत काल या समय के लिए सिद्ध क्षेत्रों की रक्षा का उत्तरदायित्व निर्वाह करना रहता है। इसके बाद वापस से वह अपनी साधना तथा अभ्यास में गतिशील हो सकते है। हां, साधक को ऐसे पद पर रहने पर किसी भी प्रकार का दंभ, लालसा या लाभ की पिपासा जागृत होती है तो उसे पथभ्रष्ट माना जाता है तथा उसका बहिष्कार किया जाए, ऐसा नियम है। हालांकि ऐसा कभी हुआ नहीं।


मेरे यह पूछने पर कि यह अवधि कितनी होती है इसके उत्तर में सदगुरुदेव ने कहा कि यह अवधि १, ११,२१, ५१, १०१, २०१, ५०१ साल की भी हो सकती है। उन सिद्धों के लिए अवधि का कोई महत्त्व नहीं है, उनके लिए यह सेवा का अवसर है, महासिद्धों की कृपा प्राप्ति का साधन है तथा अपने अनुजों की मदद करना तो एक प्रकार का स्नेह समर्पण है।


वास्तव में ऐसे संरक्षक सिद्ध वन्दनीय होते हैं, आयु से भले ही वह खुद कई सौ वर्ष के हों, पर दंभ रहित और स्वभाव से निश्छल हो कर वह अपना उत्तरदायित्व सैकडों सालों तक निभाते रहते हैं।


मेरे जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी । मैंने पूछा कि ये सिद्ध इस अत्यंत ही संवेदनशील उत्तरदायित्व का निर्वाह किस प्रकार करते हैं? सदगुरुदेव ने बताया कि हर एक सिद्ध को संरक्षक बनने पर अपना क्रम मिलता है, सभी सिद्ध क्षेत्रो के संरक्षक एक लंबा सफ़ेद रंग का चोगा वस्त्र के रूप में धारण करते हैं, तथा अपने पास सम्प्रदाय जन्य कोई भी बाना या निशानी नहीं रखते हैं। किसी भी प्रकार के साधन निशान अपने शरीर पर नहीं बनाते हैं।

इन सब के मूल में यही तथ्य मात्र है कि किसी भी प्रकार से उनमें कोई भी उद्वेग ना आये या स्वार्थ जैसे भाव मानस में उत्पन्न हो ही नहीं। उसे मात्र विशेष सिद्धों से तथा नियत सिद्ध क्षेत्र के अधिष्ठात्र से ही संपर्क करने का तथा आज्ञा पालन का आदेश होता है । तथा, उनके निर्देशानिसार वह किसी भी साधक को मदद कर सकते हैं या फिर कल्पों के अनुसार क्रिया करने पर वह उपस्थित होते हैं। इस तरह वे निरंतर गतिशील रहते हैं।


मेरे मानस में प्रश्न आया ...कल्पों के अनुसार?


सदगुरुदेव शायद मन ही मन मेरी बात को भांप गए तथा अपनी बात आगे बढाते हुए कहा, "सभी सिद्ध क्षेत्रों से सबंधित विविध तांत्रिक-मांत्रिक प्रक्रियाएं होती हैं, तथा ऐसी प्रक्रियाओं को करने पर सिद्ध जगत के सभी रहस्य साधक को प्राप्त हो जाते हैं, चाहे वह सिद्ध क्षेत्र से सबंधित दुर्लभ पदार्थ या सामग्री हो, रस-रसायन हो, सिद्ध पत्थर हो, सिद्ध स्थान हो, या सिद्धों के दर्शन लाभ हो। एक क्षेत्र से संबंधित इन्हीं निश्चित तांत्रिक मांत्रिक प्रक्रियाओ के समूह को कल्प कहा जाता है"


ऐसे कई कल्प, तंत्र ग्रंथो के रूप में विद्यमान हैं या फिर दूसरे सिद्ध स्थान या मठ तथा सिद्ध आश्रमों में गुरु मुखी प्रणाली से ऐसे कल्प रहस्य की प्राप्ति होती है। शिष्य परंपरा में ऐसे कई कल्पों को लिख कर सुरक्षित कर दिया गया है जो कि कई सिद्धों के पास तथा गुप्त मठों में आज भी मिल सकते है।


इस क्षेत्र में खोज करने पर कुछ रसायन ग्रंथो में श्रीशैल के आसपास के सिद्ध क्षेत्र से सबंधित कई प्रयोग तथा विवरण प्राप्त होते हैं, इसके अलावा गिर सिद्ध क्षेत्र से सबंधित गिरनरी कल्प के कुछ प्रयोग एक प्राचीन पांडुलिपि में देखने को मिले थे, इसके अलावा गिरनार कल्प के कुछ पन्ने प्राप्त होने पर उसे लिख लिया था तथा आबू सिद्ध क्षेत्र से सबंधित अर्बुदा देवी का कल्प भुवनेश्वरी पीठ के पीठाधीश्वर श्री महाराज जी के पास सुरक्षित था।


केदारनाथ के आस पास के सिद्ध क्षेत्र से सबंधित रुद्रयामल में विवरण मिलता है, जो कि केदार कल्प के नाम से वर्णित है, इसकी भी पाण्डुलिपि कलकत्ता में थी, वर्तमान में इसकी पांडुलिपि नेपाल के राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। अरुणाचल प्रदेश के सिद्ध क्षेत्र से सबंधित अरुणाचलेश्वर कल्प तथा कामाख्या के आस पास के सिद्ध क्षेत्र से सबंधित कामरूपरहस्य का विवरण कई सिद्धों से मिलता है लेकिन अब यह अप्राप्य हैं। ऐसे सभी क्षेत्र से सबंधित कोई न कोई आधारभूत तथ्य या कल्प खोज करने पर मिल सकते हैं। निश्चित रूप से इन सब में वर्णित एक-एक प्रक्रियाएं हीरक खंड से भी ज्यादा मूल्यवान हैं साधक के लिए, इस विषय के ऊपर फिर कभी पूर्ण विवरण देने का प्रयास करुंगा ।


सदगुरुदेव ने आगे बताया कि ऐसे ही कल्पों में सिद्धों के आवाहन की प्रक्रियाएं दी होती हैं, यह प्रक्रियाएं करने पर सिद्ध अर्थात क्षेत्र संरक्षक साधक के सामने प्रत्यक्ष प्रकट होते हैं तथा साधक का मार्गदर्शन करते हैं, बात सिर्फ मार्गदर्शन की है, सहायता की नहीं। क्योंकि यह तो खोज है, साधक की कसौटी है, एक प्रकार की साधना ही तो है। इस लिए साधक को मार्गदर्शन मिलता है, सहायता तो उसे खुद ही अपनी करनी पड़ेगी। लेकिन कोई विरले साधक ही होते है जो इस प्रकार के पूर्ण रहस्यों की प्राप्ति कर लेते हैं तथा कई प्रकार की सिद्धियों को सहज प्राप्त कर लेते हैं।


ये सब सुन कर दिल में उत्साह का संचार होना स्वाभाविक ही है तो, फिर मैंने सदगुरुदेव से पूछा कि साधक को ऐसे कल्पों की खोज में सहायता मिले उसके लिए किस प्रकार और किस देवी देवता से सबंधित साधना उपासना करनी चाहिए?...


(क्रमशः)...

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