आवाहन - भाग 4
गतांक से आगे...
जीवन क्या है, शायद इसका जवाब देना अत्यंत दुष्कर है । हर एक के लिए जीवन का मतलब अलग-अलग रहता है । जीवन का मतलब मृत्यु से जीवन की यात्रा मात्र नहीं है, यह तो एक ऐसी क्रिया है जो कभी ख़त्म नहीं होती ।
काल के लिए हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफ़र एक क्षण मात्र है क्योंकि काल भी अनंत ही तो है, और पता नहीं मैं, मेरे उन क्षणों को कैसे जी रहा था । जहां मेरे लिए एक-एक पल काटना एक-एक सदी के समान था ।
वह समय मेरे कई जन्मों के काटे हुए सैकड़ों वर्ष के काल खंड में मात्र एक बिंदु से ज्यादा कुछ भी नहीं थे । पर रुकना मेरा अभीष्ट नहीं था। आगे बढ़ना और बढ़ते रहना ही मेरे जीवन का उद्देश्य था । मेरा रास्ता तंत्र था या बन गया था ये तो मैं जानता नहीं पर, हां मेरे साथ हुई हर घटना ने मुझे तंत्र के क्षेत्र में आगे बढ़ने पर प्रेरणा जरूर दी थी ।
अब मेरे लिए जीवन का कोई विशेष महत्व नहीं था पर विशेष उद्देश्य जरूर था । तंत्र के अनंत महासागर में से मैंने जो जाना वह बूंद भी नहीं थी, नियति ने मेरे लिए एक रास्ता चुन लिया था, और बीती बातों को कूड़े में फेंक के मैं आगे बढ़ गया ।
पहली बार जाना की त्याग की महत्ता क्या होती है. त्याग सिर्फ भौतिक वस्तुओं को छोड़ना नहीं है, त्याग तो अपने अन्दर से वह मोह हटाना है जो आपके रास्ते में बाधक है । इसी दौरान मैं शाबर साधनाओं का अभ्यास करने लगा, एक साल बाद ही वह मेरा परम सौभाग्य था जब कितने अथक प्रयत्नों के बाद परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंदजी ने मेरे सर पर हाथ रख के मुझे दीक्षा प्रदान की, मुझे मेरे भाग्य पर विश्वास नहीं हो रहा था ।
सूक्ष्म जगत में जिस दिव्यात्मा ने मुझे सब से ज्यादा साधनाएं प्रदान की थी उनका चेहरा मैं कभी देख नहीं पाया था, वह व्यक्ति जिसने मुझे बचपन से लेकर आज मेरे जीवन के हर एक क्षण को मोड़ा था जिससे कि मैं तैयार हो जाउं तंत्र जगत के लिए । वही व्यक्तित्व थे परमहंस निखिलेश्वरानंद, दीक्षा के बाद सब कुछ साफ-साफ देखा मैंने । उनके प्रेम और स्नेह के सामने सब कुछ व्यर्थ सा लगा और न जाने कितने आंसू उनकी अभ्यर्थना में मेरे आंखों से निकलते ही रहे ।
जीवन की उस उपलब्धि ने मेरे सारे जख्म भर दिए, और मिला विशुद्ध प्रेम ।
प्रेम का सबसे सर्वोच्च स्वरूप । फिर क्या था आगे बढ़ते जाना ही ज़िन्दगी बन गयी थी । सदगुरुदेव का मार्गदर्शन तो था ही, और उन्ही दिनों एक ग्रन्थ को टटोलते समय आवाहन के बारे में पढ़ लिया, मेरे सामने जैसे मेरा सारा भूतकाल एक बार फिर से घूम गया, और मुझे वो शब्द फिर से याद आ गए "मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडूंगी" …. वह रहस्य जिसने मेरी ज़िन्दगी को न जाने किस तरफ मोड़ दिया था । खैर, जो भी हुआ हो सब तो प्रभु ने कुछ सोच समझ कर ही किया होगा…लेकिन वो राज़ तो मुझे जानना ही था. और सोचने लगा फिर से कि "आखिर हुआ क्या था?"
लेकिन कोई समाधान नहीं ।
सदगुरुदेव ने एक बार पूछा कि क्या बात है? मैंने कहा कुछ नहीं बस ऐसे ही कुछ सवाल हैं जिनका जवाब खोज रहा हूं । उनको मैं पूछ सकूं उतनी हिम्मत भी नहीं थी । लेकिन उनके पास तो शिष्य के हर एक क्षण का भी हिसाब रहता है, कुछ व्यंग के साथ उन्होंने कहा " मिला जवाब?" मैंने कहा नहीं । उन्होंने फिर से कहा " क्या है पूछो ?" मैंने कहा कुछ खास नहीं, मिल जाएगा, और वो मुझे उलझन में देख किंचित मुसकुरा दिए.
ऐसे ही एक दिन गुरुदेव ने बताया कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में जो वर्णन दिया हे वह सही है । तो ये भी समझ लो कि हमारा अस्तित्व है ही नहीं । मैंने पूछा ऐसा कैसे हो सकता है… हम है, आप है, सब है, फिर कैसे हो सकता है कि हमारा अस्तित्व ही नहीं हो।
"उन्होंने कहा कि तुमने पढ़ा होगा कि भगवान विष्णु निद्राधीन हैं और वो जो स्वप्न में देखते है वही सृष्टि की गति होती है । इस धारणा से तो हम सब उनके स्वप्न का भाग है और उसी में ही गतिशील है । जब उनका स्वप्न टूटेगा तब हमारा अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा"।
मैं सोच में पड़ गया कि आखिर हम हैं या नहीं हैं?????
उस दिन गुरुदेव ने कहा कि ब्रह्मांड अनंत है, हम नहीं । हमारी विचार शक्ति भी सीमित है, और इसी लिए हमारी कल्पना भी । हम कोई कल्पना करते है तो यूं तो उसका अस्तित्व नहीं होता मगर अनंत ब्रह्मांड में तो उसका अस्तित्व कहीं न कहीं तो होता ही है। अगर हम किसी बच्चे को १० अंक सिखा दें, तो वो उसमें से कई अंक की कल्पना करता है, उसके लिए उन अंको का अस्तित्व नहीं है, ये मात्र उसकी कल्पना ही है, लेकिन गणित शास्त्र के ग्रन्थ के लिए वो एक अत्यंत न्यून स्थिति होती है ।
मैंने कहा कि क्या तब हर एक चीज़ जो कि हम सोचते है वह होती है? उन्होंने कहा कि "ब्रह्मांड में कोई भी चीज़ कल्पना नहीं होती, योगी अपनी सिद्धियों के माध्यम से अपनी कल्पना को साकार स्वरूप दे सकते है, चाहे वह कुछ भी हो क्योंकि अस्तित्व की प्रारंभिक स्थिति ही तो कल्पना होती है और यही कल्पना योग है ।
अगर इसमें तंत्र का समन्वय करवा दें तो वह बन जाता है कल्पना तंत्र ।
अगर किसी ऋषि ने किसी को वरदान देने के लिए सोचा है, कल्पना की है तब ही वो उसे सिद्धि बल से वरदान दे देगा, ये सब कल्पना पर ही आधारित है । भौतिक जगत में कल्पना से अविष्कार का पूर्ण निर्माण होने में सालों का समय लग जाता है, सिद्ध उसे अपने सिद्धि बल का "आवाहन" करके एक क्षण में साकार रूप दे देते है"।
मन ही मन मैंने सोचा तो क्या भावना भी मेरी कल्पना का साकार रूप थी ? शायद नहीं….
(क्रमशः)
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