आवाहन - भाग 6
गतांक से आगे...
आवाहन के अंतर्गत हमने अब तक जाना कि क्या होता है बाहरी आत्मा आवाहन । अपनी ही आत्मा से आत्मा आवाहन के सभी लाभ मिल सकते हैं और, अतीन्द्रिय जागरण के बाद किस प्रकार आत्मा समूह पर ही काबू पाया जा सकता है । आगे, हमने ये भी जाना कि क्या होता है सूक्ष्म जगत, क्या होती है, आवाहन की उपलब्धियां, सहयोगी या आत्म पुरुष का निर्माण, कल्पना योग, कल्पना जगत का आवाहन से सम्बन्ध, माया जगत और अस्तित्व से आवाहन किस तरह से जुड़ा हुआ है ।
यहां पर एक बात कहना चाहूंगा कि हर मनुष्य के ज्ञान की एक सीमा होती है, जिसके आगे वह जाना चाहता है । ज्ञान अनंत है, इसलिए हर वो व्यक्ति जिसे ज्ञान अर्जित करना हो वह अज्ञानी ही है, जहां पर ज्ञान की सीमा आ जाती है वहीं से चमत्कार का सिलसिला शुरू होता है । जो चीज़ हमारे ज्ञान से परे है वही चमत्कार है ।
विचार करें कि एक मनुष्य का बच्चा बिछड़कर जंगल में चला जाए, कई साल तक वह जंगली पशुओं की तरह रहे तो, न तो वह मनुष्यों की तरह बोल ही सकता है और न ही मनुष्यों की रीत-भात से वह परिचित होता है । सालों बाद अगर उसे कोई शहरी मनुष्य दिखाई दे और वह उसे बोलता सुने, उसकी सभ्यता को देखे, तो उसके लिए वह एक बहुत बड़ा चमत्कार ही होगा । आश्चर्य की सीमा पार हो जाएगी और वही से प्रारंभ होगा उसका ज्ञान बोध । ऐसे कई व्यावहारिक उदाहरण हम लोगों ने अपने भौतिक जीवन में देखे ही हैं । कई बार टीवी और अखबारों में भी ऐसी खबरें आ ही जाती हैं । तो यह समझना असंभव नहीं है ।
मनुष्य चमत्कार का सृजन नहीं करता है । वह तो प्रकृति का कार्य है, हम उसमें एक निमित्त ही होते हैं, जिसमें सब से महत्वपूर्ण है ज्ञान बोध, वह जो कि हमें अब तक अज्ञात था ।
सृष्टि अनंत रहस्यों से भरपूर है और उसमें ऐसी कई घटनायें होती रहती हैं जिन्हें अविश्वसनीय या चमत्कार कहा जा सकता है लेकिन जिन्होंने वह ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, जो आगे के ज्ञान बोध के लिए बढ़ चुके हों, उनके लिए वह महज एक सामान्य घटनाक्रम है, इस अनंत रहस्य का । और, ज्ञानी लोग उसे मात्र निमित्त कहके आगे बढ़ जाते है…
ऐसी ही एक घटना मेरे साथ भी घटी, जो कि मेरे लिए अचरज, रहस्य और चमत्कार से भरपूर थी । पर मैं मात्र उसमें एक निमित्त बन के ही रह गया……………
सन्यासी ने मेरी ओर कुछ अजीब ढंग से देखा और किंचित मुस्कराहट के साथ कहा "क्योंकि यह तुम्हारा वास्तविक शरीर नहीं है, तुम अभी सूक्ष्म शरीर में हो"…और काफी समय से कुछ भी भाव नहीं था वहां पर जैसे मानस में एक भाव आया "आश्चर्य"…
सूर्य को पूर्व की ओर देख कर मैंने अंदाज़ा लगाया कि शायद अभी सुबह का ही समय है । धूप अत्यंत ही प्रखर थी लेकिन गर्मी का लेश मात्र भी एहसास नहीं, बायीं ओर एक रेल की पटरी थी जिस पर शायद सालों से कोई रेल नहीं चली थी, सामने की तरफ दूर-दूर तक फैला हुआ पथरीला मैदान…
होश हुआ तो मैंने कुछ ऐसे ही पाया स्वयं को, पता नहीं कि मैं यहां पर पहुंचा भी तो कैसे, आश्चर्य तो होना चाहिए था लेकिन लेश मात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ मुझे । उस वक्त शायद मेरा मानसिक संतुलन मेरे हाथ में नहीं था । मैं कुछ कुछ ऐसा बुत सा बन गया था कि जिसकी कोई सोच नहीं है, कोई भी गति नहीं और, न ही कुछ समझ है । न मुझे मौसम का एहसास था और, न ही कोई भय । लग तो रहा था कि बहुत लम्बी मुसाफ़िरी की है लेकिन थकावट भी नहीं । पता नहीं क्यों???
चारों ओर नजर घुमाकर मैंने एक नज़र दौड़ाई, दूर-दूर तक इंसान और इंसान की बसाहट का कोई नामोनिशान नहीं । चारों तरफ का वातावरण अत्यंत ही अजीब लग रहा था । सिर्फ इतना ही महसूस कर पाया कि मेरे शरीर में जरुर कुछ परिवर्तन सा हुआ है ओर वो अत्यंत ही सुखद है । न कोई कष्ट, न ही कोई पीड़ा और न ही कोई विषाद । और, एक अजीब सी शांति अन्दर ही अन्दर आनंदित करती हुयी सी । रेल की पटरी से दूर पथरीली ज़मीन पर मैं चलने लगा लेकिन चलने का एहसास ही कुछ और था । एक सुखद अनुभूति हो गयी थी, मेरी गति मुझे असामान्य लगी, धीरे धीरे ऐसा लगा जैसे मैं हवा में तैर रहा हूं, चल नहीं रहा हूं … पर, वास्तव में तो मैं उड़ ही रहा हूं ।
मुझे पता नहीं था कि मैं किस तरफ और क्यों जा रहा हूं? ऐसा लग रहा था जैसे कोई दूर, बहुत दूर से, मुझे कोई अदृश्य डोर से खींच रहा है…थोड़े ही समय में न जाने कितना अंतर ख़त्म कर दिया । कुछ अंदाज़ा ही नहीं पर बहुत ही दूर एक इंसान की आकृति मुझे दिखाई दी, जो एक टक मेरी ओर देखे जा रही थी । मैं उसी के नजदीक पहुंचा तो वह एक मनुष्य की आकृति थी । मुस्कुराकर उसने अभिवादन किया । मेरी मनः स्थिति जिस प्रकार से थी मैंने उससे परिचय पूछना भी उचित नहीं समझा । क्योंकि सब कुछ दिमाग में जैसे स्पष्ट ही तो था । सिर्फ एक भाव लाते ही उनका परिचय भी मिल गया । उन्होंने बिना मुंह खोले कहा कि कैसे हो? और मैंने ये सुना या यूं कहूं कि मैंने उनके मानस से निकली हुयी उन तरंगों को समझा । जवाब में मैंने भी बिना आवाज निकाले उत्तर दिया कि ….ठीक हूं ।
मुझे पता नहीं था कि ये मैं कैसे कर रहा हूं… यहां पर मूक वार्तालाप हो रहा था जिसमें शब्द और ध्वनि सिर्फ मानसिक तरंगें ही थी… उनके संकेत से हम दोनों आगे निकल गए… थोड़ी दूर और आगे चलने पर एक सन्यासी नज़र आए । भारी, लंबा शरीर, उलझी जटाएं, भगवा धोती । तेजस्वी मुख पर कुछ चिंता की लकीर सी लग रही थी । हमारे उनके पास पहुंचते ही उन्होंने कहा, "अच्छा हुआ आप लोग आ गए हैं …मैं उस मायावी योगिनी से परेशान हो गया हूं….."
(क्रमशः)
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