आवाहन - भाग 13
आवाहन की इस श्रृंखला में अगर काल गमन के इस विषय पर चर्चा न की जाए तो फिर ये श्रृंखला लिखना ही बेकार है । इसलिए इस भाग में हम काम गमन की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे । काल गमन का शाब्दिक तात्पर्य है कि समय के क्रम में आगे या पीछे जाने की क्षमता प्राप्त करना । वैसे तो यह एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया है परंतु सदगुरुदेव की कृपा से, सूक्ष्म शरीर के अभ्यास के दौरान ही जो अनुभव हुआ, और उसके बाद सदगुरुदेव ने जो व्याख्या की, उस पर सदगुरुदेव की आज्ञा से ही कुछ लिख पा रहा हूं ।
एक लंबी सी सुरंग; जिसमें चारों तरफ घोर काला रंग लेकिन फिर भी उसमें से प्रकाश झर रहा था। यूं लग रहा था जैसे ये पूरी सुरंग ही वायु से बनी हुई थी । अजीब सा ही नज़ारा था अपने आप में। उस ३०-४० फीट व्यास वाली सुरंग में पता नहीं कैसे पहुंच गया था। जिसमें अपने आप में आश्चर्य चकित करने वाली गति से जैसे हवा में तैरते हुए आगे बढ़ता ही जा रहा था। ज्यों - ज्यों आगे बढ़ता जा रहा था, प्रकाश भी उतना ही बढ़ता जा रहा था। लौकिक भाषा में कहे तो करीब १५-२० मिनट की स्थिति रही होगी उसी सुरंग के अंदर में सफर की।
बहुत ही अद्भुत नज़ारा था । चारों तरफ वायु से निर्मित वह सुरंग अपने आप ही जैसे घूम रही थी। मेरी गति की तीव्रता और प्रकाश दोनों बढ़ते ही चले गए। लेकिन जैसे ही प्रकाश बढ़ता गया वैसे अपने आप ही सुरंग दिखना बंद हो गयी और फिर एक भयंकर तेज प्रकाश मेरे सामने था। उस तीव्र प्रकाश को देखने की पूरी कोशिश की लेकिन प्रकाश बढ़ता ही गया अपने आप में। और, एक चरम सीमा के बाद उस प्रकाश को देखना संभव नहीं हुआ मेरे लिए और, मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गयीं। जब आंखें खोलीं तो अपने आपको किसी पहाड़ पर पाया।
शाम घिर आयी थी और देखना थोड़ा मुश्किल हो गया था। आस - पास कुछ मिटटी के मकान और झोपडियां पहाडों पर एक दूसरे से दूर - दूर दिख रहे थे। उन्हीं झोपडियों में से कुछ एक ने दिये जलाये हुए थे। आगे बढ़ा, तो थोड़े पत्थरों के बीच से एक रास्ता मिला। ध्यान से देखने पर मुझे वो क्षेत्र कुछ परिचित सा लगा। फिर से रहस्यों में घिरने लगा मन, कि...
लेकिन आगे बढ़ने पर काफी लोग और सन्यासियों को बैठे पाया। यहां पर बिजली की कोई व्यवस्था नहीं थी। बड़े - बड़े पत्थरों के किनारे बैठे लोगों में से कुछ लोग मुझे देख सकते थे और कुछ नहीं।
मुझे कुछ समझ नहीं आया, "ये सूक्ष्म शरीर का अभ्यास था, फिर ये लोग मुझे कैसे देख सकते है?"
आगे जाने के लिए रास्ता ज़रूर था उसी कच्चे रास्ते पर कुछ कच्ची सीढ़ियां सी दिख रही थीं। चारों तरफ जंगल से घिरी वह जगह अत्यंत ही मनोहर दिख रही थी। फिर भी ऐसा लग रहा था कि यह जगह कुछ परिचित सी है।
बस कुछ सीढ़ियां ही आगे बढ़ा कि अपने सामने जो दृश्य देखा वह देख कर मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। माँ कामाख्या का मंदिर...!
लेकिन ना ही कोई गलियारा। न ही कोई बिजली। न ही वह फर्श और कोई दीवार। धूमिल सा प्रांगण जिसके आस पास कुछ सन्यासी और संन्यासिन तथा, कुछ स्थानिक या फिर पथिक थे। ऐसा कैसे हो सकता है? यह मंदिर तो मैंने देखा है, ये सब तो यहां संभव ही नहीं है। यहां पर तो बिजली है, दुकानें हैं, पक्के रास्ते हैं, मकान भी हैं, मंदिर का प्रांगण, सीढ़ियां वगैरह सब पक्का है । फिर ये मैं क्या देख रहा हूं?
पहचानने में गलती नहीं हुई थी। मात्र १० फीट की दूरी पर खड़ा था मैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि कुछ समय में ही यह मंदिर और ये जगह ऐसे बन गई जैसे कि कभी.... और उसी समय एक विद्युत झटका अपने आप में मुझे खींच कर ले गया वापस उसी सुरंग में । वही १५-२० मिनट और जब आंख खुलीं तो मन विस्मय से भर गया था।
कुछ सोचने समझने की शक्ति ही जैसे नहीं रही थी मुझमें । सूक्ष्म शरीर के अभ्यास में ऐसी सुरंगों को देखना तथा उसमें प्रवेश करके यात्रा करना, ऐसा कभी मैंने सुना भी नहीं था। रहस्य इसी प्रकार बना रहा।
फिर एक दिन सदगुरुदेव से ही पूछा कि क्या जो मैंने देखा था और, जिस जगह मैं गया था...उन्होंने बीच में ही रोककर कहा कि वो माँ कामाख्या का ही मंदिर था। मैंने कहा कि कामाख्या का मंदिर और उसकी स्थिति तो अपने आप में अलग है और, मैंने वहां जाकर जो देखा और अनुभव किया है, वो भी अपने आप में अलग है। ऐसा कैसे हो सकता है? उनके चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कान फ़ैल गई और कहा, "हो सकता है, क्योंकि तुम समय में ६० साल पीछे जो चले गए थे।"
मेरी आँखें फटी की फटी रह गई। स्वाभाविक सी बात है कि मुझे विश्वास नहीं आया, इच्छा हुई कि एक बार अपने आप को आईने में देख लूं तुरंत कि कहीं शरीर में कोई तफावत तो नहीं आ गया। कहीं मेरा शरीर ६० साल...
मेरे मन में उठ रहे विचारों को देख कर स्वामी जी कुछ व्यंग और मधुर स्नेह से मेरी तरफ देखकर हंसने लगे...। उन्होंने कहा कि काल ज्ञान के संबंध में कई प्रकार की साधनाएं निहित हैं जिसके माध्यम से व्यक्ति काल को देख सकता है । फिर चाहे वह भूत हो या भविष्य। ये बिलकुल उस तरह है जिस तरह आप किसी जगह की तस्वीर देख रहे हो। लेकिन इससे भी आगे की साधनाएं हैं जिसके माध्यम से व्यक्ति न सिर्फ काल को देख सकता है बल्कि अपने सूक्ष्म शरीर से उस काल खंड में उपस्थित भी हो सकता है। ये कोई चित्र नहीं है, ये अपने आप में वास्तविक काल खंड है जो कि बराबर अपनी मूल जगह पर गतिशील है।
तुम्हारे योग तंत्र के अभ्यास के अंतर्गत तुमने जाने - अनजाने में ही उसी काल खंड में प्रवेश कर लिया था और, इसी वजह से, उस काल खंड को ना सिर्फ तुमने देखा बल्कि उस काल खंड में प्रत्यक्ष रूप से गतिशील हो कर भाग भी लिया। मैंने कहा कि फिर तो इसका ये अर्थ है कि किसी भी काल में जा कर हम वो हर घटना को प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं जिसे, हम करना चाहें।
लेकिन इसके संबंध में तंत्र क्या है?
सदगुरुदेव ने कहा कि महाकाली अपने आप में काल की देवी है। तथा, देवी धूमावती विपरीत क्रम की देवी है। अगर इन दोनों के बीज को सिद्ध कर सम्मिलित मंत्र के रूप में जाप कर लिया जाए तो साधक के लिए ये स्थिति सहज ही संभव होने लगती है...
मैंने पूछा कि इसकी पूर्ण प्रक्रिया क्या है?...
(क्रमशः)
Comments