आवाहन - भाग 11
गतांक से आगे...
सन्यासी ने कहा कि अगर तुम अपने सूक्ष्म शरीर में ही रहे तो, योगिनी तुम पर तारक प्रयोग कर के वापस अपने मूल शरीर में भेज देगी। इस लिए ये ज़रूरी है कि तुम अपने सूक्ष्म शरीर को छोड़ के कारण शरीर में आ जाओ। मैं अभी भी विस्मय में ही था कि क्या ये संभव है?
संन्यासी अपने कारण शरीर में ही थे और अब तक मुझे समझ आ गया था कि मेरे साथ आए हुए सज्जन भी अपने कारण शरीर में ही हैं।
योजना के मुताबिक हमें योगिनी के पास जाना था जहां पर संन्यासी का मूल शरीर पड़ा हुआ था। कारण शरीर के माध्यम से जाने पर योगिनी के किसी प्रयोग का हम पर असर होना शायद ही संभव हो..। मेरे साथ आए दूसरे सज्जन के ऊपर ये जिम्मेदारी थी कि वे अपने साधना के बल पर संन्यासी के मूल शरीर के रजतरज्जू को उनके कारण शरीर से जोड़ दे। इससे संन्यासी अपने मूल शरीर में आ जाएंगे और योगिनी से त्रस्त उस संन्यासी को आज़ादी मिल जाएगी ।
लेकिन योगिनी भी कोई मिट्टी की मूरत नही थी, वह भी विभिन्न प्रकार के तांत्रिक प्रयोगों को सिद्ध कर चुकी थी। जरूरी यह भी था कि संन्यासी जब अपने स्थूल शरीर में आ जाए तो योगिनी तत्काल उन पर कोई प्रयोग न कर पाए…।
योगिनी कुछ भी कर सकती थी क्योंकि योगिनी ने अपने संकल्प के मुताबिक संन्यासी के साथ साधना नहीं की तो उसे मृत्यु का भी वरण करना पड़ सकता है।
लेकिन क्या हुआ अगर उसने कोई प्रयोग कर दिया और संन्यासी को कुछ हो जाए….। ज़रा सी भी गलती अनर्थ कर सकती थी…।
मेरा सूक्ष्म शरीर को छोड़कर कारण शरीर में प्रवेश करना भी योजना का एक भाग ही था। संन्यासी ने मुझे शवासन में लेट जाने को कहा…मैं वहीं भूमि पर लेट गया…। संन्यासी ने कहा कि तुम्हें कुछ नही करना है, बस, तुम्हें मणिपुर चक्र पर ध्यान लगाना है…। मैंने अपनी आंखे बंद की और अपने मणिपुर चक्र पर ध्यान एकत्रित किया । प्राण वायु को मणिपुर में एकत्रित करने के बाद मैंने आंखे खोलीं तो संन्यासी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और मेरे हाथ को अपने हाथ में लिया । उन्होंने आंखे बंद कीं और कुछ मंत्र मन ही मन बोल के आंखे खोलीं । उन्होंने अपने हाथ से मेरे हाथ को अभी भी पकड़ रखा था। उन्होंने कहा कि अब धीरे - धीरे खड़े हो जाओ । मैंने हलके से ऊपर उठने की कोशिश की तो, मेरे पूरे शरीर में जबरदस्त कंपन होने लगा और, धीरे धीरे मुझे लगा कि मैं अपने शरीर से अलग हो रहा हूं। धीरे धीरे मेरा अपना सारा शरीर ही अलग हो गया ।
ऐसा अनुभव हुआ, जैसे कि मैंने कोई कपड़ा ओढ़ रखा था जो धीरे धीरे हट रहा हो। संन्यासी ने मेरे हाथ को खींचा । इसी के साथ मुझे जैसे एक विद्युत का जोरदार झटका लगा और मैं अपने शरीर से अलग हो गया।
अब मैं संन्यासी के सामने खड़ा हुआ था। लेकिन जब मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो मेरी आंखें फटी की फटी रह गयीं।
वहां पर मेरा अपना शरीर पड़ा हुआ था। हवा में एक फिट ऊपर उठे हुए, शवासन लगे हुए।
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था…मैं आगे बढ़ा और उसे हलके से स्पर्श किया। संन्यासी ने कहा कि यह तुम्हारा निश्चेत सूक्ष्म शरीर है। मैं कभी संन्यासी की ओर देखता तो कभी अपने शरीर की ओर, और, कभी मेरे निश्चेत पड़े हुए सूक्ष्म शरीर की ओर…।
बड़ा ही अद्भुत दृश्य था।
मेरे साथ आए सज्जन आगे बढ़ गए थे । उनके पीछे सन्यासी भी बढ़ गए और आखिर में मैं भी उनके पीछे बढ़ने लगा। सन्यासी और वे सज्जन उसी कमरे के दरवाज़े पर रुक गए जिसमें संन्यासी का मूल शरीर पड़ा हुआ था।
जब मैं कमरे के दरवाज़े पर पहुंचा तो एक झटके के साथ ही दरवाज़ा अपने आप खुल गया…और सामने ही अपनी मोहक मुस्कान के साथ अपने आसन पर बैठी थी वह रूपसी योगिनी…
(क्रमशः)
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