आवाहन भाग - 21
जब इन दुर्लभ प्रक्रियाओं को अपनाया तब जाना कि वास्तव में ही योग तंत्र की इन सामान्य सी दिखने वाली प्रक्रियाओं में कितनी तीव्रता है और, साधक अगर नियमित अभ्यास जारी रखे तो कुछ ही दिनों में अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है।
अब तक हमने प्राणायाम में अनुलोम विलोम से संबंधित विशेष प्रक्रियाओं के बारे में जाना है। महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि साधक को तुरंत ही इन प्रक्रियाओं में उलझ नहीं जाना चाहिए। एक निश्चित समय काल तक इसे नियमित रूप से करते हुए धीरे-धीरे अभ्यास को बढ़ाना चाहिए।
इन प्रक्रियाओं को अपनाते समय किसी भी प्रकार की जोर ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए या फिर अपने हिसाब से प्रक्रियाओं में परिवर्तन बिलकुल नहीं करना चाहिए। ये प्रक्रियाएं सीधे ही चक्रों तथा कुण्डलिनी से संबंध रखती हैं; जब प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है तो मूलाधार चक्र से ऊर्जा ऊपर उठने लगती है। एक मामूली सी गलती भी कुण्डलिनी का वेग बदल सकती है तथा साधक को अत्यधिक से अत्यधिक नुकसान हो सकता है। अभ्यास को सावधानी पूर्वक करना ही हितकारक है।
साधक के लिए ये भी उत्तम रहता है कि वह कुछ दिन तक मूलाधार में सुषुप्त कुण्डलिनी को जागृत करने की प्रक्रिया करे, जिससे कि अचानक कुण्डलिनी जागरण के वक्त एक साथ जो ऊर्जा का संचार हो सकता है, उससे संभावित नुकसानों से बचा जा सके और, अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके।
कुण्डलिनी जागरण के लिए साधक को सर्व प्रथम अनुलोम-विलोम को सोSहं बीज के साथ पांचों प्रकार से कर लेना चाहिए जिसकी विधि पहले ही स्पष्ट की जा चुकी है। यह क्रिया ऊर्जा के संचार तथा शरीर शुद्धि के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।
इसके बाद साधक को भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। कुछ लोग शिकायत करते हैं कि इस प्राणायाम को करने से कुछ लाभ नहीं मिला। दरअसल, भस्त्रिका करने पर उसके मूल लाभ न मिलने का एक मुख्य कारण यह है कि जब व्यक्ति सांस के माध्यम से वायु खींचता है तब वह वायु पेट तक ही पहुंच कर वापस आ जाती है। जबकि होना ये चाहिए कि भस्त्रिका के लिए जिस वायु को अंदर खिंचा जाता है उसे मूलाधार तक यानी शरीर में गुदा मार्ग तक पहुंचाना चाहिए। अब उसके वेग की बात करे तो सांस को जितनी जोर से खींच सकते है, खींचना चाहिए, तथा उसे उतने ही वेग से बाहर निकालना चाहिए। मेरुदण्ड (रीड़ की हड्डी) को सीधा करके बैठने पर और, कुछ दिन अभ्यास करने पर साधक उस वायु को सीधा मूलाधार पर आघात करने में सक्षम हो जाता है।
शुरूआत में साधक को ये ख्याल रखना चाहिए कि यह प्रक्रिया १५-२० बार से ज्यादा न करे अन्यथा नाक से खून निकलना शुरू हो सकता है।
साधक, कुछ दिनों के बाद इस अभ्यास को ६० बार तक ले जाए। तब नाक से पीला, चिकना कफ, जमा हुआ खून तथा कई बार काले रंग की अशुद्धि निकलती है। यह सब आंतरिक अशुद्धियां होती हैं जो कि नाडियों में जम चुकी होती हैं। इसे साफ़ करना चाहिए। अब इस अभ्यास की तीव्रता को बढ़ाना है। एक मिनिट में ६० बार पूर्ण भस्त्रिका होना चाहिए। मतलब कि एक सेकंड में एक बार। जोर से सांस को खींचकर, मूलाधार पर आघात कर, उसे वापिस जोर से बाहर निकाल देना - यह एक बार हुआ जो कि एक सेकंड में होना चाहिए।
साधक ने आगे की प्रक्रियाओं का ठीक से अभ्यास किया होगा तो यह सहज ही है।
इस प्रक्रिया के बारे में सदगुरुदेव ने कहा है कि अगर साधक इस प्रकार से ५ मिनिट अभ्यास कर ले (मतलब कि 300 बार) तो २१ दिन में उसकी कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है तथा मूलाधार पूर्ण रूप से जागृत हो जाता है।
कल्पना कर सकते है कि रोज मात्र ५ मिनिट का ही अभ्यास और, कुण्डलिनी जागरण संभव हो जाता है। अगर आगे साधक अपना अभ्यास जारी रखे तो वह अंदर ली गयी सांस को एक निश्चित चक्र पर आघात करने में भी सक्षम हो सकता है और इसके बाद साधक सिर्फ इस एक प्रक्रिया के माध्यम से रोज ५ मिनट अभ्यास करे तो भी सभी चक्रों को जागृत कर सकता है।
(क्रमशः)
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