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सद्गुरु कृपा विशेषांक: परम सत्य का बोध

Updated: Aug 7

परम सत्य का बोध


नववर्ष का समय है । आप सबको बहुत बहुत शुभकामनायें । आप सबके जीवन में इच्छित मनोकामनायें पूरी हों, ऐसी ही शुभेच्छा है ।


एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के लिए इस लेख को प्रकाशित किया जा रहा है । यह एक ऐसा विषय है जिस पर सार्वजनिक रुप से शायद ही कभी चर्चा हुयी है । एक आम आदमी, साधक या शिष्य के लिए तो यह विषय लगभग अछूता ही रहा है ।


दरअसल लोग इस विषय को बड़े - बड़े साधु, सन्यासियों का विषय मानते हैं और, ऐसा रहा भी है । एक आम साधक तो इस बात पर शायद ही कभी चिंतन करता हो कि हम भी अपने जीवन में सत्य का बोध कर सकते हैं । ज्यादातर लोग तो अपने जीवन की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए ही साधना क्षेत्र में उतरते हैं - किसी को अप्सरा साधना करनी है, किसी को लक्ष्मी जी का आशीर्वाद चाहिए, किसी को अपने शत्रुओं का विनाश करना है तो भैरव साधना करनी है, किसी की शादी नहीं हो पा रही है तो उसके लिए साधना करनी है तो, किसी को नौकरी के लिए...... लिस्ट तो बहुत लंबी बन सकती है पर, आशय आप समझ गये होंगे । लेकिन परम सत्य के बोध के लिए साधना कौन करता है भाई?


अब, लोग अपना काम - धंधा देखें, परिवार को संभालें, जीवन में जो कमियां हैं उनको सुधारें या परम सत्य का ज्ञान करने निकल पड़ें । सबको पता है कि जो सत्य की खोज में निकला तो वो जाकर पहाड़ों में ही संभव हो पाया । अब यहां घर-द्वार, बीबी-बच्चे, कारोबार छोड़कर कौन पहाड़ों में जाकर आफत मोल ले ?


वैसे एक बात बताऊं, आप चाहे मानो या न मानो, जिसको भी सत्य का बोध हुआ है, वह वापस आकर यही सोचता है कि जिस चीज को पाने के लिए मैं जंगल, पहाड़ों में इतने साल भटका हूं, वह तो मुझे यहां अपने घर में भी प्राप्त हो सकती थी ।


अब यह बात तो वही आदमी बता सकता है और लिख सकता है, जिसे अपने घर में रहकर ही यह चीज प्राप्त हुयी हो । मैं भी तभी लिख सकता हूं जब वह मैंने स्वयं अनुभव की हो ।


अगर आप विश्वास न भी कर सकें तो भी, एक बात सोचकर देखिये, सदगुरुदेव भी सन्यस्त जीवन को छोड़कर वापस गृहस्थ जीवन में आये ही थे । ऐसे कितने सन्यासी आपने देखे हैं जो सन्यास छोड़कर वापस गृहस्थ बने और उसी गरिमा के साथ जीवन जिया है जो सन्यासी जीवन की होती है । तो आपको नहीं लगता कि सदगुरुदेव को परम सत्य का बोध रहा होगा?

जब सदगुरुदेव सशरीर मौजूद थे तो एक बात वह अक्सर कहा करते थे, "मैं इन साधकों को, शिष्यों को बहुत कुछ दे सकता हूं, लेकिन इनको जो मांगना चाहिए वह तो ये मांगते नहीं है बाकी, गैरजरुरी चीजें ही हमेशा मांगते रहते हैं"

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