परम सत्य का बोध
नववर्ष का समय है । आप सबको बहुत बहुत शुभकामनायें । आप सबके जीवन में इच्छित मनोकामनायें पूरी हों, ऐसी ही शुभेच्छा है ।
एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के लिए इस लेख को प्रकाशित किया जा रहा है । यह एक ऐसा विषय है जिस पर सार्वजनिक रुप से शायद ही कभी चर्चा हुयी है । एक आम आदमी, साधक या शिष्य के लिए तो यह विषय लगभग अछूता ही रहा है ।
दरअसल लोग इस विषय को बड़े - बड़े साधु, सन्यासियों का विषय मानते हैं और, ऐसा रहा भी है । एक आम साधक तो इस बात पर शायद ही कभी चिंतन करता हो कि हम भी अपने जीवन में सत्य का बोध कर सकते हैं । ज्यादातर लोग तो अपने जीवन की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए ही साधना क्षेत्र में उतरते हैं - किसी को अप्सरा साधना करनी है, किसी को लक्ष्मी जी का आशीर्वाद चाहिए, किसी को अपने शत्रुओं का विनाश करना है तो भैरव साधना करनी है, किसी की शादी नहीं हो पा रही है तो उसके लिए साधना करनी है तो, किसी को नौकरी के लिए...... लिस्ट तो बहुत लंबी बन सकती है पर, आशय आप समझ गये होंगे । लेकिन परम सत्य के बोध के लिए साधना कौन करता है भाई?
अब, लोग अपना काम - धंधा देखें, परिवार को संभालें, जीवन में जो कमियां हैं उनको सुधारें या परम सत्य का ज्ञान करने निकल पड़ें । सबको पता है कि जो सत्य की खोज में निकला तो वो जाकर पहाड़ों में ही संभव हो पाया । अब यहां घर-द्वार, बीबी-बच्चे, कारोबार छोड़कर कौन पहाड़ों में जाकर आफत मोल ले ?
वैसे एक बात बताऊं, आप चाहे मानो या न मानो, जिसको भी सत्य का बोध हुआ है, वह वापस आकर यही सोचता है कि जिस चीज को पाने के लिए मैं जंगल, पहाड़ों में इतने साल भटका हूं, वह तो मुझे यहां अपने घर में भी प्राप्त हो सकती थी ।
अब यह बात तो वही आदमी बता सकता है और लिख सकता है, जिसे अपने घर में रहकर ही यह चीज प्राप्त हुयी हो । मैं भी तभी लिख सकता हूं जब वह मैंने स्वयं अनुभव की हो ।
अगर आप विश्वास न भी कर सकें तो भी, एक बात सोचकर देखिये, सदगुरुदेव भी सन्यस्त जीवन को छोड़कर वापस गृहस्थ जीवन में आये ही थे । ऐसे कितने सन्यासी आपने देखे हैं जो सन्यास छोड़कर वापस गृहस्थ बने और उसी गरिमा के साथ जीवन जिया है जो सन्यासी जीवन की होती है । तो आपको नहीं लगता कि सदगुरुदेव को परम सत्य का बोध रहा होगा?
जब सदगुरुदेव सशरीर मौजूद थे तो एक बात वह अक्सर कहा करते थे, "मैं इन साधकों को, शिष्यों को बहुत कुछ दे सकता हूं, लेकिन इनको जो मांगना चाहिए वह तो ये मांगते नहीं है बाकी, गैरजरुरी चीजें ही हमेशा मांगते रहते हैं" ।
आज मैं जब भी सदगुरुदेव के उन कहे हुये वाक्यों को याद करता हूं तो आंखों में केवल अश्रु ही आते हैं, मेरा रोना बंद नहीं हो पाता है । सदगुरुदेव बार - बार कहते रहे कि मेरे सशरीर रहते हुये आप इन चीजों को सीख लो, बाद में सिर्फ पछताते रह जाओगे, रोओगे और कोई आपको सांत्वना देने वाला नहीं होगा ।
और, आज वही हो रहा है ।
खैर, यह सब तो अपनी जगह ठीक है लेकिन अपनी मूल चर्चा पर वापस आते हैं कि आखिर यह सत्य है क्या?
कुछ लोग मानते हैं कि मृत्यु ही परम सत्य है । तो भाई मेरे, अगर मृत्यु, जो कि केवल 1 क्षण के लिए आती है, वह परम सत्य है तो फिर जीवन असत्य कैसे हुआ । जीवन तो कम से कम 60 - 70 वर्ष तक जिया भी जा सकता है । मृत्यु से तो जीवन ज्यादा सत्य है ।
लोग नचिकेता की यम से हुयी मुलाकात का भी मर्म याद रखते हैं कि आखिर मृत्यु क्या है, मृत्यु के बाद क्या होता है इत्यादि ।
महात्मा बुद्ध तो भगवान बुद्ध कहलाये क्योंकि उन्होंने सत्य के बोध के लिए ही बिहार के गया जिले में तपस्या की थी । वह जिला आज बोधगया के नाम से जाना जाता है । जिस पेड़ के नीचे उन्होंने तपस्या की थी, उसे लोग बोधि वृक्ष के नाम से जानते हैं, उसकी पूजा करते हैं । बुद्ध भी इसलिए कहा जाता है उनको क्योंकि उनको सत्य का बोध हुआ था, वैसे नाम तो उनका सिद्धार्थ ही था ।
लेकिन, यहां पर ज्ञान की बात नहीं की जा रही है; इस धरा पर ज्ञान और ज्ञानियों की कमी तो है नहीं और, इतने सारे ज्ञान में से उस सत्य को पहचानना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है । हो सकता है कि आपको गुरु कृपा से पहले से ही सत्य का ज्ञान हो पर अगर, बोध नहीं है तो वह ज्ञान आपके किसी काम का नहीं है । पर अगर आपको सत्य का बोध हो जाए तो फिर बाकी कुछ रह नहीं जाता है ।
इतिहास में ऐसे गिने - चुने लोग हैं जिनको सत्य का बोध हुआ था । पर कभी किसी ने ये नहीं सोचा कि आखिर, जिनको सत्य का बोध हुआ था तो उन्होंने समाज के सामने उस परम सत्य का ज्ञान क्यों नहीं कराया?
और, मूल प्रश्न तो अभी भी है कि आखिर यह परम सत्य है क्या?
"......................................................"
बस इतना सा ही है परम सत्य । जितने भी शब्द आप इतनी जगह में लिख सकते हैं, बस उतने ही आ सकेंगे उसकी परिभाषा में ।
अब आप सोच रहे होंगे कि लिखा भी कुछ नहीं हैं और कह भी रहे हैं कि यही परम सत्य है ।
तो इसका जवाब सिर्फ यह है कि इस परम सत्य का ज्ञान दिया नहीं जा सकता है ।
दुनिया में केवल यही एक चीज ऐसी है जिसको केवल लिया जा सकता है और, इस परम सत्य का ज्ञान पढ़कर भी नहीं लिया जा सकता, इसका तो बोध करना होता है । गुरु भी इस ज्ञान को दे नहीं सकते, लेकिन केवल मात्र गुरु की कृपा से ही आप इस ज्ञान का बोध कर सकते हैं ।
अब प्रश्न आता है कि यह बोध आखिर है क्या?
सवाल का जवाब जटिल नहीं है लेकिन यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी गूंगे से गुड़ का स्वाद पूछ लिया जाए । पर तुलना तो की ही जा सकती है तो हम उन चीजों का उदाहरण ले सकते हैं जो आज के भौतिक युग में आसानी से उपलब्ध हैं । यानी कि फिल्में । बोध के मामले में मुझे दो फिल्में याद आती हैं -
अगर आप हॉलीवुड़ की फिल्में देखने के शौकीन हों तो Tom Hanks की एक फिल्म बहुत साल पहले आयी थी The Da Vinci Code. इस फिल्म में अभिनेता को जो बोध होता है वह एक सुखद किस्म का है ।
अगर आप अपने बॉलीवुड़ की फिल्में देखने के शौकीन हैं तो अभी फिलहाल में परेश रावल की एक फिल्म आयी है धरम संकट । इस फिल्म में अभिनेता को जो बोध होता है वह एक सदमे जैसा है ।
कभी - कभी तो मुझे बहुत सी फिल्में आश्चर्य चकित कर देती हैं कि आखिर किस प्रकार से मनुष्य इस प्रकार की कल्पना कर सकता है जो कि परम सत्य के बहुत नजदीक होती हैं । पर इसका जवाब भी आसान ही है कि मनुष्य भी तो परमात्मा का ही अंश है और, ईश्वर तो अपने आपको हर क्षण व्यक्त करता ही रहता है । जरूरत तो उस दृष्टि को प्राप्त करने के लिए है जो हमें परमात्मा का साक्षात्कार करा सकती है । अगर आप कड़ियां जोड़ पाने में माहिर हों तो परम सत्य का बोध करना कठिन नहीं है । पर इसका अहसास कड़वा होगा या मीठा, ये आपकी अपनी फितरत पर निर्भर होगा ।
अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कुछ दिन तो सदमे में ही था ।
आज इस विषय पर कुछ न बताकर भी सब कुछ बता दिया है मैंने । समझदार को तो इशारा काफी होता है भाई जी । वैसे, सदगुरुदेव ने भी कभी इस विषय पर इस प्रकार से चर्चा नहीं की थी जैसी आज मैं कर रहा हूं और, अगर सच पूछें तो मैं भी इस विषय को कभी नहीं उठाता लेकिन, विगत कुछ समय में कुछ घटनायें ऐसी हुयीं कि मुझे उन गोपनीय तथ्यों को खोलना पड़ गया है जो कि सर्वथा व्यक्तिगत होते हैं और सिर्फ व्यक्ति मात्र तक सीमित होते हैं ।
वैसे बात तो यह भी थी कि आखिर मैं ही क्यों सामने आकर लोगों को समझाता फिरुं कि आपको क्या करना चाहिए और क्या नहीं । जो सदगुरुदेव के समय उनको नहीं समझ सके तो, मुझ जैसे व्यक्ति की क्या औकात है कि इस प्रकार के लोगों को मैं समझा सकूं ।
एक तथ्य यह भी है कि हम लोग अधिकतर समय केवल अपने जीवन स्तर को सुधारने के लिए ही साधना करने का विचार करते हैं । हालांकि, इसमें कुछ गलत भी नहीं है और हमें ऐसा करना भी चाहिए । साधनाओं के माध्यम से हमें अपने जीवन के कष्टों को कम करना ही चाहिए, लेकिन उसके बाद ....?
जब सब कुछ मिल गया, तब भी हम उसी में उलझे रहते हैं । दरअसल, उससे आगे सोचने के लिए हमारे पास कुछ है ही नहीं ।
होगा भी तो कैसे?
जिससे हम कुछ पूछ सकते हैं और जो हमें आगे का रास्ता दिखा सकता है, वह तो केवल गुरु ही हो सकते हैं । और, उनसे हमने जब भी पूछा तो केवल यही पूछा कि गुरुजी, बड़ी समस्या है जीवन में, नौकरी नहीं मिल रही है, शादी नहीं हो रही है, शत्रु बहुत बढ़ गए हैं .... जब इनसे आगे चले तब भी सवाल वही रहे कि गुरुजी बेटे की शादी कैसे करुं, पत्नी बीमार रहती है, बेटी की शादी करनी है पर पैसे नहीं हैं ....आदि, आदि ।
पहली बात तो यह है कि जीवन में अगर गुरु मिल जाएं तो बहुत बड़ी बात समझनी चाहिए और, उसमें भी सद्गुरु मिल जाएं तो इसे अपने जीवन का सौभाग्य समझना चाहिए ।
पर गुरु के मिलने के बाद भी अगर सवाल वही बने रहें जो 10 साल पहले थे तो कहीं न कहीं हमारी ही कमी है। गुरु तो कभी देने में कंजूसी नहीं करते, ये तो मैं अपने अनुभव से भी कह सकता हूं और ये भी कह सकता हूं कि कितना भी निकम्मा आदमी क्यों न हो, 10 - 20 साल में वह भी पार निकल आता है । बस शर्त ये है कि गुरु के प्रति समर्पण हो ।
अब आते हैं मूल बात पर कि आज इतने गंभीर विषय पर क्यों पोस्ट की जा रही है । दरअसल, अपने ही कुछ गुरु भाई लोग गुरु त्रिमूर्ति पर ही आक्षेप लगा रहे हैं, आरोग्य धाम को लेकर आरोप लगा रहे हैं कि गुरु त्रिमूर्ति जानबूझकर आरोग्य धाम को बनने नहीं दे रहे हैं तो मन में बहुत कष्ट होता है कि जिस गुरु ने हमें साधना के मार्ग पर चलना सिखाया हो, उसी गुरु के प्रति हम किस प्रकार के आक्षेप लगा रहे हैं । जो आक्षेप लगा रहे हैं, उनकी श्रद्धा परम पूज्य सदगुरुदेव डा. नारायण दत्त श्रीमाली जी के प्रति है, इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन, उनके ही द्वारा स्थापित गुरु त्रिमूर्ति के प्रति आज हमारे विचार किस प्रकार के हो गये हैं, इसके बारे में सोचने की परम आवश्यकता है ।
हम लोग साधारण साधक हैं पर सदगुरुदेव की कृपा से ही हमें भी अपने जीवन में उस परम सत्य का बोध हुआ है । इसमें कोई संशय नहीं है और हमें इसका प्रमाण भी किसी को देने की आवश्यकता नहीं है । और, ऐसा कहकर हम स्वयं को भगवान बुद्ध के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं; ऐसा तो सोचना भी पाप होगा, सदगुरुदेव का अपमान होगा । शिष्य हो या साधक हो, वह तो गुरु के चरणों में ही बैठ सकता है ।
गुरु कृपा से ही हम लोगों को उस सत्य का बोध इस अल्प जीवन काल में ही हो गया जिसके लिए बड़े - बडे़ ऋषि मुनि सालों साल तपस्या करते रहे हैं ।
पर हमें सत्य का बोध हुआ और वैसे ही हुआ जैसे कि उन महान ऋषि मुनियों को हुआ था ।
तो हमें क्या इसके लिए आजीवन सदगुरुदेव का आभारी नहीं होना चाहिए ? अवश्य होना चाहिए और, हम तो सदगुरुदेव के प्रति नतमस्तक हैं ।
लेकिन, इसके साथ - साथ विचारणीय यह भी है कि क्या हमें सदगुरुदेव के निर्णयों को स्वीकार और उनका सम्मान नहीं करना चाहिए? गुरु त्रिमूर्ति भी तो उन्हीं का स्थापित किया हुआ वह प्रकाश स्तंभ है जो हमें अंधकार में आज भी राह दिखा रहा है । सदगुरुदेव को शरीर त्याग किये हुये 22 वर्ष व्यतीत हुये हैं, इन 22 वर्षों में ही हमें उनके निर्णय गलत नजर आने लग गये ।
आप कह सकते हैं कि हम सदगुरुदेव के निर्णय पर उंगली नहीं उठा रहे हैं, हम तो गुरु त्रिमूर्ति पर उंगली उठा रहे हैं कि उन्होंने यह नहीं किया, वह नहीं किया, वह ऐसा कर रहे हैं, वह वैसा नहीं कर रहे हैं, आदि आदि । कहने को तो आप कुछ भी कह सकते हैं पर क्या आप इतना भी नहीं सोच सकते कि जो इस समस्त ब्रह्मांड़ का ज्ञान खुद में समेटे हुये हैं तो उनको यह नहीं पता कि उनको क्या करना है और क्या नहीं ?
क्या अब हम जाकर उनको बतायेंगे कि उनको क्या करना है?
हम कबसे इतने बड़े बन गए कि गुरु को यह बताने लग जाएं कि गुरुजी आपने ये काम नहीं किया, आपने वो काम नहीं किया, आपको ये वाला काम तो करना ही होगा?
क्या हमारी इतनी औकात है भी कि हम गुरु से उनके कार्यों को लेकर प्रश्न कर सकें? जिज्ञासा करना अलग बात है, पर सीधे - सीधे गुरु पर ही उंगली उठा देना, ये तो कुछ और है और, अगर मेरी राय पूछें तो गलत भी है ।
अगर जीवन में गुरु न आए होते तो एक सामान्य मनुष्य से ज्यादा जीवन नहीं प्राप्त हो सकता था । आज जितना भी ज्ञान और अनुभव प्राप्त हुआ है तो उसके लिए गुरु के प्रति नतमस्तक होना चाहिए । कोई काम उनको करना है या नहीं, उसके लिए गुरु जानें । पर एक साधक को या शिष्य को अपनी मर्यादा का हमेशा पालन करना चाहिए, और उसे अपने गुरु पर अटूट विश्वास होना चाहिए कि गुरु जो भी कर रहे हैं वह गलत नहीं हो सकता ।
अगर आप इसे अंधविश्वास कहते हैं तो जान लीजिए कि आध्यात्म के रास्ते पर अगर आप गुरु पर अंधविश्वास भी करते हैं तब भी आपके लिए अच्छा ही है । जो लोग मुझे व्यक्तिगत रुप से जानते हैं और इस समय इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं तो, वह इस लाइन का मतलब अच्छे से समझ रहे होंगे ।
कुछ सवाल आजकल सोशल मीड़िया में पूछे जा रहे हैं, जवाब देने की हमारी क्षमता नहीं है पर राय तो दे ही सकते हैं -
प्रश्नः साधनाओं में असफलता मिलने पर आप क्या करते हैं, क्या जोधपुर गुरुधाम में उन शंकाओं का निवारण होता है?
हमारी रायः किसने कहा है कि आपको 1 दिन में ही सफलता प्राप्त हो जाएगी । अगर आप डाक्टर भी बनना चाहते हैं तो आपको कम से कम 10 साल लगते हैं क्योंकि, सिर्फ बैचलर डिग्री हासिल करने से कोई विशेषज्ञ नहीं बन जाता है । साधना के क्षेत्र में आज गुरुकुल तो चल नहीं रहे हैं कि पहले आपका एडमिशन होगा और फिर आपको पढ़ाया जाएगा । फिर भी सदगुरुदेव की कृपा से आपको आज भी दीक्षा प्राप्त हो सकती है । सदगुरुदेव के लिखे हुये कितने ग्रंथ हैं, ये सब क्या सजाने के लिए लिखे गये थे या इनका कोई प्रायोगिक इस्तेमाल भी किया जा रहा है । रही बात शंका निवारण की, तो क्या सारी शंकाओं का निवारण सिर्फ गुरुधाम से ही होगा । क्या उन गुरुभाईयों का कोई दायित्व नहीं है जिनकी सारी शंकाओं का निवारण हो चुका है, जो एक स्तर तक पहुंच गये हैं, क्या सारा बोझ अभी भी गुरु पर ही लादना है या हम भी कभी गुरु की आंख, कान, हाथ, पैर बनकर कार्य करेंगे?
प्रश्नः सूर्य विज्ञान, पारद संस्कार, आयुर्वेद तथा कुण्डलिनी जागरण जैसे विषयों पर आज शिविर क्यों आयोजित नहीं होते? क्यों इन साधना की प्रायोगिक जानकारी साधकों को नहीं दी जा रही। क्या त्रिमूर्ति गुरुदेव को इसका ज्ञान है? क्या किसी जिज्ञासु को इस ज्ञान से संबंधित दिशा निर्देश प्राप्त हो सकता है।
हमारी रायः अभी पहली क्लास से निकलकर दूसरी क्लास में पहुंचे हैं और इच्छा है कुंडलिनी जागरण की । मन के भाव तो अभी तक स्थिर नहीं हो पाये हैं और चाहिए पारद संस्कार और आयुर्वेद का ज्ञान । कितनी साधनायें की हैं आपने अभी तक ? इससे भी बढ़कर कितने लोगों को साधक रुप में तैयार किया है आपने अब तक? हम गुरु त्रिमूर्ति से पूछ रहे हैं कि आपको ज्ञान है या नहीं पर अपना भी लेवल देखा है कभी ? अगर जानकारी दे दें आपको तो करेंगे पारद संस्कार? है इतनी क्षमता है आपमें कि अघोर मंत्र का 50 हजार भी जप कर सकें ? है इतनी क्षमता कि जड़ी बूटियों का ज्ञान हासिल करने के लिए जंगल - जंगल भटक सकें । अगर कर सकते हैं तो कोई न कोई आपको यह भी सिखा देगा । पर यह कहना कि यह सब गुरु त्रिमूर्ति ही सिखायेंगे, और गुरुधाम में ही बिठाकर सिखायेंगे तो यह भी जान लीजिए कि अगर आपके प्रारब्ध में यह सब सीखना होता तो आप सदगुरुदेव के समय में पैदा हुये होते, उनकी सेवा का सौभाग्य आपको मिला होता और, इससे भी बढ़कर उन विषयों का ज्ञान हुआ होता जिनकी आप इस समय आकांक्षा कर रहे हैं । सीधी बात है, हर चीज का ज्ञान हर युग में नहीं मिलता । मिलेगा वही आपको, जिसके आप लायक हैं । कड़वी लगेगी आपको, लेकिन सत्य यही है मेरे भाई । पर फिर भी, अगर आपका समर्पण गुरु के प्रति हो तो, वह भी मिल सकता है जो आपके प्रारब्ध में नहीं था ।
प्रश्नः सदगुरुदेव की चल अचल संपत्ति पे पुत्र के रूप में उनका पूरा अधिकार है, हमें उसमें कोई रुचि नहीं। परंतु सदगुरुदेव के ज्ञान पर समस्त गुरुभाई बहनों का अधिकार है।
हमारी रायः तो किसने कहा है कि सदगुरुदेव का ज्ञान समस्त गुरु भाई बहनों को नहीं मिलेगा? आप इस ब्लॉग को ही ले लीजिए । यहां कौन सा आपसे फीस ली जाती है । क्या ये सब सदगुरुदेव का ही दिया हुआ ज्ञान नहीं है? क्या आप ये उम्मीद करते हैं कि समस्त ज्ञान आपको एक ही जगह से मिलेगा? कैसी बातें करते हैं आप भी, सदगुरुदेव ने तो जीवित जाग्रत ग्रंथ तैयार किये हैं अपने पूरे जीवन भर, क्या उनका कोई दायित्व नहीं बनता कि सामने आकर सदगुरुदेव के ज्ञान को बारीकी से सबके सामने रखें । जब सदगुरुदेव सशरीर मौजूद थे, उस समय भी उनके कम से कम 2 - 2.5 करोड़ शिष्य थे । क्या उनमें से 20 लाख शिष्य भी ऐसे नहीं थे जिनको अपने जीवन में कुछ प्राप्त हुआ था? कहां गये वो सब लोग? क्या उनको समाज के सामने नहीं आना चाहिए था? क्या ये स्वार्थ की पराकाष्ठा नहीं है कि, खुद तो पा लिया लेकिन जब समाज में नवचेतना देने की बारी आयी तो गायब हो गये?
प्रश्नः नये साधकों को जुड़ने के पश्चात माला कैसे और किस उंगली पे रखकर घुमानी है, उसके बारे में भी नहीं बताया जाता, ये क्या अंधकार है? साधना प्रायोगिक वस्तु है, यह विशुद्ध विज्ञान है, इस विज्ञान की बारीकियों को क्यों शिविर में नहीं सिखाया जाता?
हमारी रायः अब ऐसा तो नहीं हो सकता है कि गुरु त्रिमूर्ति सारे काम छोड़कर यही सिखाते रहें कि माला कैसे घुमानी है । ऐसा भी नहीं हो सकता है कि शिविर में सब लोग नये ही हों, कोई भी पुराना गुरुभाई मौजूद न हो । क्या पुराने लोगों का कोई दायित्व नहीं है कि अपने आसपास नजर ड़ालकर नये साधकों का मार्गदर्शन कर सकें? रही बात बारीकियों की तो, यह समय के साथ समझ में आती है ।
प्रश्नः बिना पूछे सीधा साधना सामग्री कई बार साधकों को भेज दी जाती है, और साधक इसे मर्यादा उल्लंघन ना हो, करते हुए, पैसा उधार लेके भी छुड़वा लेता है। लेकिन क्या उसके बाद उस साधक को साधना या प्रयोग से संबंधित लाभ हुए या नही, इसका कोई फॉलो अप् क्यों नही लिया जाता?
हमारी रायः गुरुधाम कोई बिजनेस की जगह तो है नहीं कि आप आय का कोई स्रोत पैदा कर सकें । गुरुधाम का भी अपना खर्च है और ये निकलता है पत्रिकाओं और साधना सामग्री से । अगर आपको साधना सामग्री भेजी जा रही है तो आप इसे अन्यथा क्यों लेते हैं । अगर आपको चाहिए तो आप लीजिए नहीं तो आप इसे वापस भी कर सकते हैं । गुरुधाम की तरफ से आपसे कोई जोर-जबरदस्ती तो की नहीं जाती है कि आपको लेनी ही पड़ेगी । रही बात लाभ हुआ या नहीं, ये तो पूरी तरह से साधक के ऊपर निर्भर करता है । ये कोई रुपया पैसा तो होता नहीं है कि आप साधना करेंगे और आपको 20000 रुपये प्राप्त हो जाएंगे । ये तो आध्यात्मिक जगत है, अगर मानसिक शांति भी प्राप्त हो जाए तो उससे बड़ी क्या चीज होगी ।
प्नश्नः अगर सफलता नहीं मिली तो उसके क्या कारण रहे और आगे क्यों कोई दिशा निर्देश नहीं दिया जाता।
हमारी रायः दिशा निर्देश दिये नहीं जाते हैं बल्कि गुरु से लिए जाते हैं । लॉकड़ाउन में गुरुधाम से यह व्यवस्था की गयी है कि आप सीधे सदगुरुदेव से फोन पर बात कर सकते हैं । कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने साधना में सफलता प्राप्त न होने पर दिशा निर्देश प्राप्त करने के लिए गुरुधाम फोन किया था? अगर हम फोन भी नहीं कर सकते हैं तो कौन आयेगा आपको दिशा निर्देश देने के लिए?
प्नश्नः क्या सदगुरुदेव के सिद्धाश्रम जाने के बाद सब कुछ VPP छुड़वाने और विशेष दीक्षा लेने तक ही सीमित रह गया है?
हमारी रायः दीक्षा लेने को आजकल के साधकों ने इतनी सामान्य चीज बना लिया है कि यहां पैसे दो और वहां आपको दीक्षा मिल जाएगी । इस विषय पर पहले भी अंक विद्या-भाग ५ में एक पोस्ट की जा चुकी है इसलिए बार - बात एक ही चीज को दोहराना उचित नहीं है । लेकिन इतना समझ लीजिए कि जिस दीक्षा की प्राप्ति को आज आप बहुत आसान समझते हैं, आध्यात्मिक जगत में उसकी बहुत ऊंची कीमत होती है पर वहां पैसे नहीं चलते हैं । वहां तो साधना के माध्यम से मोल-भाव होता है । एक दीक्षा प्राप्त करने के लिए आपको किसी विशेष मंत्र का 1 करोड़ जप करना होता है । है हिम्मत आपके अंदर कि मात्र 1 दीक्षा प्राप्त करने के लिए पहले 1 करोड़ जप करें और तब जाकर दीक्षा लें । अगर ऐसा करते हैं तो जान लीजिए कि उस एक दीक्षा से ही जीवन में सफलता प्राप्त हो जाएगी । पर ऐसा करना कौन चाहता है, सब लोग तो इतने फास्ट हो गये हैं कि...... ...... .......
हक सबको चाहिए, मेहनत कोई नहीं करना चाहता ।
तो मेरे भाई, सवाल आप उठाते रहो, कोई नहीं रोकने वाला लेकिन, गुरु पर सवाल उठाने से आपका कोई भला नहीं होने वाला । वैसे भी, मैं आपको रोकने वाला कौन होता हूं, आप जो भी करना चाहें, आप करने के लिए स्वतंत्र हैं, आखिर हर व्यक्ति अपने जीवन का रास्ता तो स्वयं ही चुनता है । पर देख लीजिए, आज के युग में मनुष्य के पास देखा जाए तो 20 - 30 वर्ष का ही समय होता है जब वह ठीक से साधना कर पाता है, जीवन की अनसुलझी गुत्थियों को सुलझा पाता है और इससे भी बढ़कर उस परम सत्य का ज्ञान कर पाता है, उसका बोध कर पाता है । पर इसके मूल में केवल और केवल सद्गुरु की कृपा है ।
अब आप देख लीजिए कि गुरु से सवाल पूछने हैं या गुरु के चरण पकड़ने हैं । सवाल पूछेंगे तो एक न एक दिन जवाब मिल ही जायेंगे और अगर चरण पकड़ेंगे तो एक न एक दिन उस परम सत्य का बोध अवश्य होगा । ऐसा होगा क्योंकि गुरु अपने द्वार पर आये व्यक्ति को खाली हाथ नहीं भेजते । आगे आपकी मर्जी है कि आपको चाहिए क्या ।
वैसे, सदगुरुदेव ने एक बात हमेशा कही है कि हमें समस्याओं का चिंतन नहीं करना चाहिए । समस्याओं को दूर करना तो गुरु की ड्यूटी है, इसीलिए तो हम गुरु बनाते हैं । जब गुरु गारंटी ले रहे हैं कि आपको समस्याओं के बारे में नहीं सोचना चाहिए तो आपको भी अपने जीवन में निश्चिंत हो जाना चाहिए । अगर आपने गुरु बनाये हैं और आपने उस गुरु के प्रति समर्पण किया है तो आपकी समस्याओं को सुलझाना गुरु का काम है, आपका नहीं । आप तो बस गुरु के बताये रास्ते पर चलते जाइये ।
अस्तु ।
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