आवाहन भाग - 22
वास्तव में हर एक रहस्य को जानने से पहले हम अपने ज्ञान को पूर्ण समझ लेते है लेकिन वस्तुतः ज्ञान तो अनंत है, सीमाओं से परे है और, जिसको ज्ञान की ललक हो वह हमेशा यह स्वीकार कर के ही चलता है कि हर एक ज्ञान के अंत पर एक नया ज्ञान आपको आलिंगन बद्ध करने के लिए खड़ा हुआ मिलेगा ही।
वैसे तथ्य यह भी है कि ज्ञान प्राप्ति का अनुभव तो तृप्ति देता ही है लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है कि, ज्ञान प्राप्ति का मार्ग और प्रक्रिया मन को पुलकित भी कर देती है।
ज्ञान प्राप्ति में जो अनुभव हुए होते है, वह, जो मूल लक्ष्य ज्ञान है, उसके साथ, कई और ज्ञान जोड़ देती है। वैसे भी साधना क्षेत्र में व्यक्ति को हर क्षण नूतन ज्ञान की प्राप्ति होती ही है। कई बार उस सूक्ष्मता का आभास होता है और कई बार नहीं हो पाता। सफलता या असफलता तो बोध है लेकिन प्रक्रिया से हमें कुछ न कुछ सीखने को मिलता ही है।
कुछ - कुछ ऐसा ही सोचने लगता था मैं, मायूसी के उन क्षणों में। पर लगता था कि जैसे सदगुरुदेव स्वयं ही बैठ कर समझा रहे हैं कि असफलता से विचलित मत हो, अनुभवों को संजोकर रखो । यही साधना पथ है। जहां ज्ञान सफलता या असफलता के रूप में हर क्षण में निहित है ही। और, सारे नकारात्मक विचार ऐसे विलीन हो जाते जैसे सूर्योदय के समय कुछ ही पलो में अंधकार छुप जाता है । और, फिर मनोल्लास पूर्ण सदगुरुदेव प्रदत्त सोऽहं प्रक्रिया फिर से शुरू हो जाती।
लोक-लोकान्तरों की यात्रा में अभी तक जितनी सफलता चाहिए थी उतनी न मिलने के कारण दुःख होता था लेकिन एक दिन ऐसी घटना घटी जिसने मुझे अचंभित कर दिया। मैं नित्य की भांति अभ्यास कर रहा था और फिर अचानक से मैंने अपने आप को एक अद्वितीय जगह पर पाया। अब तक मैं इतना समझ सकने में समर्थ था कि यकीनन उस वक्त मैं अपने स्थूल शरीर में नहीं था। अपनी आंखों को इतना सुखद नज़ारा देख कर और स्वयं ही उस सुख की अनुभूति कर मैं और भी आनंदित हो रहा था। लेकिन अभी भी मैं विस्मय में ही था।
रात्रि काल का अंधेरा छाया हुआ था लेकिन एक शीत प्रकाश चारों तरफ इस प्रकार फैला हुआ था कि कुछ भी देखने में किसी भी प्रकार की कोई समस्या ना आए। मेरे आसपास कई प्रकार के भवन बने हुए थे जैसे कि कोई नगर हो। लेकिन ये भवन वैसे थे जैसे पहले कभी नहीं देखे थे। आकार में अत्यधिक बड़े तथा कोई भी महलों से कम नहीं था। इसके अलावा सभी भवनों में से एक हल्का सा प्रकाश फूट रहा था। चारों तरफ अलग ही प्रकार के पुष्प खिले हुए थे और कई प्रकार के पेड़ - पौधे थे जिन्हें भी पहले कभी नहीं देखा था।
जिस प्रकार कोई नगर रात्रि के प्रथम प्रहर में गतिशील होता है, ठीक उसी प्रकार से गतिशील था वह नगर भी, अपने सामने ही कुछ स्त्री पुरुषों को भी मैंने देखा; उनमें से कुछ पृथ्वी लोक के थे। लेकिन दो पुरुष ऊंचे तथा अत्यधिक सुन्दर लग रहे थे, उनका वर्ण बहुत ही गोरा था तथा सुन्दरता से परिपूर्ण थे। उनके परिधान भी कुछ अलग लग रहे थे, निश्चय ही वह पृथ्वी लोक के नहीं थे, और न ही यह स्थल पृथ्वी लोक का भाग था। समझते देर नहीं लगी मुझे कि यह कोई और ही लोक है। मेरे सामने खड़े सभी लोग मुझे देख कर अनदेखा कर गए, शायद वो लोग किसी जश्न की तैयारी में थे। मैं ऐसा कह सकता हूं क्योंकि उनके सामने एक छोटा सा मेज था जिस पर वह कुछ सामान सजा रहे थे और, आपस में हंस - हंस कर बात कर रहे थे।
उनके ठीक पीछे ही एक आलीशान महलनुमा भवन था जिसमें से गुलाबी प्रकाश झर रहा था। हवा में एक हलकी - हलकी सी सुगंध तैर रही थी। क्या किया जाए - यह सोचने और समझने के लिए मैं वहाँ खड़ा था फिर न जाने क्यों मैं बायीं तरफ चल दिया, मुश्किल से ३०-४० कदम चलने पर दूसरा भवन दिखा जिसका दरवाज़ा खुला था। जैसे ही दरवाज़े पर खड़ा हुआ, अंदर की भव्यता को देख कर एक दफा विश्वास ही नहीं हुआ । दीवारों पर बेशकीमती धातुओं की झालरें लटकीं हुईं थीं, मलमली प्रकार का कोई कालीन पूरी जगह पर बिछा हुआ था, पता नहीं विचित्र रत्न पत्थरों से निर्मित आदमकद की एक से एक आलीशान मूर्तियां वहां पर थीं।
आगे चलते ही एक खुले हुआ कमरे से रोशनी आ रही थी। अंदर देखा तो पूरा कमरा पीत (पीली) तथा रक्त वर्णीय धातुओं से मढ़ा हुआ था। असबाब बेमिशाल....। ये कमरा किसी की भी कल्पना से परे था। पृथ्वी पर ऐसा वैभव संभव ही नहीं था।
तभी मेरी नज़र सामने की ओर पड़ी। सामने एक बहुत बड़े नक्काशीदार कोच पर एक नारीमूर्ति को देखा मैंने। मुझे अपनी आँखों पर एक दफा विश्वाश नहीं हुआ । उसने गुलाबी रंग का परिधान पहना हुआ था, कीमती रत्न तथा सजावटी गहने धारण कर रखे थे। उसका शरीर एक काल्पनिक मूर्ति जैसा था। दिखने में उसकी उम्र २३-२४ साल से ज्यादा की नहीं लग रही थी। मैं उसे आश्चर्य के साथ देख रहा था तभी उसकी बड़ी बड़ी आंखे मुझ पर पड़ीं। एक क्षण को उसने मुझे देखा और दूसरे ही क्षण मुस्कुराई। मैं अभी भी विस्मय में ही था कि अच्छा हो कि मैं यहां से भाग जाऊं । लेकिन उसको देखने पर कोई भी वहां से हिल नहीं सकता था। शायद वह मेरी मनोदशा से परिचित हो गई और खिलखिलाकर हंस पड़ी।
उसके सौंदर्य में और भी निखार करती हुई उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी; विचलित मत हो, तुम अपने लोक में नहीं हो। थोड़ी विषमता के साथ मैंने पूछा कि मैं कहां हूं? उसने कहा ये गंधर्वों का स्थान, गंधर्व लोक है....
(क्रमशः)
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