आवाहन भाग - 23
गतांक से आगे...
गन्धर्वलोक शब्द सुनते ही एक क्षण के लिए ह्रदय प्रसन्न हो उठा; गन्धर्व तथा उनके लोक के बारे में कई तंत्र ग्रंथों में मुझे विवरण तो मिला था, लेकिन कभी सोचा नहीं था कि इस लोक को इस प्रकार से देख भी पाऊंगा ।
वस्तुतः मैंने जो छवि अपने मन में बनायीं थी, यह लोक उससे बहुत ही भिन्न था। सम्मोहन से भरपूर मुस्कान के साथ वह गन्धर्वकन्या मुझे विस्मित देख कर आगे कहती है, “मेरा नाम हेमऋता है, शायद तुम्हें इतना विस्मय इसलिए हो रहा है क्योंकि तुम यहां पर पहली बार आए हो”।
मैं समझ गया कि यह देव कन्या मन के भावों को किताब की तरह पढ़ लेती है। उसने अपनी बात आगे जारी रखी कि, “तुमने यहाँ पर कुछ पृथ्वी लोक के निवासियों को भी देखा है, दरअसल वे लोग इस लोक में आते रहते है”।
अब तक मैं थोड़ा संभल चुका था, मैंने बीच में ही पूछ लिया, "लेकिन मैं खुद अपनी मर्जी से यहां नहीं आया हूं, मैं यहां पर कैसे पहुंच गया?" वो सुंदरी हौले से हंसी और कहा कि, “तुम्हारी साधना से, जो अभ्यास तुम कर रहे थे, उसी से तुम यहां पहुंचे हो"।
मैंने बताया कि ये तो ठीक है, लेकिन मेरा कोई चिंतन इस लोक पर आने का नहीं था। उसने कहा, "अभी नहीं रहा होगा लेकिन, कभी न कभी तो रहा ही होगा । और, वैसे भी जब योग तंत्र की साधना होती है तब अभ्यास के मध्य जो अनुभव होते है वह साधक के हाथ में नहीं होते, साधक के हाथ में सिर्फ प्रक्रिया को अपनाना होता है”।
एक और बात मुझे समझ में आयी वो ये कि यह कन्या पृथ्वी लोक में प्रचलित योग तंत्र की साधना के बारे में ज्ञान रखती है। मैंने पूछा कि फिर आखिर यह अनुभव होते कैसे हैं? उसने कहा कि इसका उत्तर बहुत ही विस्तार में है। इसके लिए ये जानना जरूरी है, "आखिर मनुष्य में ऐसा क्या होता है कि सभी योनियां उसकी तरफ आकर्षित हो सकती हैं?
मैंने कहा कि ये सच है। आखिर क्यों ऐसा होता है कि उच्चलोक तथा उच्च वर्ण रखने वाले दूसरे लोक के प्राणी भी साधना के माध्यम से किसी सामान्य मनुष्य के संपर्क में आ जाते हैं? मुझे भी यह प्रश्न लंबे समय से परेशान करता रहा है।
उसने कहा कि भले ही सौंदर्य या विलास में देव योनि को मनुष्य योनि से श्रेष्ठ कहा जाता है जिसमें इंद्र, गन्धर्व, विद्याधरी, नाग या अन्य लोक तथा उसके निवासी शामिल हैं लेकिन मनुष्य की संरचना कुछ इस प्रकार से होती है कि उनमें जो अणु तथा तत्वों का जो संयोजन है, उसके आधार पर वह किसी भी श्रेष्ठ योनि के गुणों को विशेष प्रक्रियाओं के माध्यम से प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार वह एक से ज्यादा या अनंत गुणों को प्राप्त कर सकता है। इन प्रक्रियाओं को ही साधना कहा गया है।
उसने आगे कहा कि यह विशेषता मात्र मनुष्य योनि में ही है, इसलिए साधना के लिए मनुष्य शरीर को धारण करना श्रेष्ठ होता है। दूसरे लोक तथा जगत के व्यक्ति अपने शरीर में मूल तत्वों को घटा बढ़ा सकते है लेकिन, उसमें परिवर्तन संभव नहीं होता है। जैसे कि पृथ्वी तत्व की मात्रा को बढ़ा कर यहां के निवासी पृथ्वीलोक के विशेष मनुष्यों के सामने प्रकट होते हैं या फिर माया लोक के निवासी अग्नि तत्व में जल और पृथ्वी तत्व को मिला कर इच्छित रूप धारण कर सकते है। लेकिन वह रूप न तो स्थायी होता है और, न ही उससे आगे किसी और गुण को धारण किया जा सकता है।
इसके अलावा, सामान्य मनुष्य की दृष्टि सिर्फ वाह्य सुंदरता तथा विलास की तरफ होती है, जबकि देव योनि में दैहिक सौंदर्य तथा भोग-विलास एक सामान्य बात है। होता ये है कि इन असंख्य मनुष्यों में से जब कुछ मनुष्य, अपनी गति श्रेष्ठता की ओर यानी साधना पथ पर बढ़ाता है, तब निश्चय ही वह देवगणों से श्रेष्ठ बनने की प्रक्रिया की ओर अग्रसर हो जाता है और, उसकी आंतरिक सौन्दर्यता खिल जाती है। इससे उसमें आंतरिक अशुद्धियां दूर होती है।
इस आंतरिक सौंदर्य को तो देव योनि में भी प्राप्त करना दुष्कर होता है।
उस सुंदरी ने अपनी बात जारी रखते हुये बताया कि श्रेष्ठ योनि मंत्रों के आधीन हो कर कार्य करती है और आज्ञा पालन करती है । लेकिन मंत्र बद्ध होने के कारण ही वह अपने मूल गुणों को उजागर नहीं कर सकती।
लेकिन कोई भी गुण अपने मूल गुण में विशुद्धता को प्राप्त किये नहीं होता है और गुण, मूल तत्व पर ही आधारित होते है। इसको समझने के लिये - गुण जैसे कि लोभ, ईर्ष्या, दर्प, घमंड इत्यादि, ये सब गुण किसी न किसी रूप में हमारे अंदर भी होते हैं लेकिन, हम इनको नष्ट नहीं कर सकते पर, एक साधक के अंदर इन गुणों का धीरे धीरे नाश होता ही है । इस लिए देव वर्ग का आकर्षण सदैव से ही इस प्रकार से मनुष्य लोक की तरफ रहता है।
इसी प्रकार जब कोई उच्चकोटि का साधक इस लोक में प्रवेश करना चाहता है तो उसे इस लोक के किसी गन्धर्व की मदद से यहां प्रवेश मिल सकता है लेकिन, तुम्हारा यहां पर आना इस प्रकार से नहीं हुआ है। तुम्हारे यहां आने का कारण दूसरा लोक है।
मैंने पूछा, "कौन सा लोक"?
(क्रमशः)
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